शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

10 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


यह प्रश्न अपने मन से प्रतिक्षण पूछना जरूरी है कि तूं जो कर रहा है, वह किस लिये कर रहा है! करना समझ में आता है। पर करने से पहले उसका कारण जानना जरूरी होता है। क्योंकि कारण में ही परिणाम जुडा रहता है। कारण जानेंगे तो परिणाम भी जानेंगे।
कारण का पता कोई और नहीं देगा! हमें हमसे ही पता करना होगा। कारण का पता करते ही हम यह जानकर हैरान हो जायेंगे कि अधिकतर क्रियाऐं व्यर्थ थी!
और करने से पहले ज्योंहि कारण पूछेंगे तो अधिकतर ‘करने का त्याग ही कर देंगे! करने के बाद ‘करने की निरर्थकता पता चले, उसकी बजाय करने से पहले ही ‘करने की निरर्थकता पता चले, वह ज्यादा हित में होता है।
पसीना बहाने के बाद जब उसकी व्यर्थता का अहसास होता है, तो हृदय ग्लानि से भर उठता है।
पसीना बहाने से पहले ही उसकी व्यर्थता का अहसास होता है, तो हृदय संतोष से भर उठता है।
ग्लानि से परिपूर्ण हृदय उन क्षणों को तो खोता ही है, जिसे खोया है, बल्कि आगे आने वाले कई क्षणों के खोने का भी कारण बन जाता है। क्योंकि ग्लानि के भावों से हमारी मानसिकता कुण्ठित हो जाती है।
जबकि संतोष के क्षण स्वयं में तो सार्थक होते ही है, आने वाले समय को भी ऊर्जा से भर देते हैं।
जीवन के प्रत्येक क्षण का आनंद इसी से पाया जा सकता है कि हम करने का कारण जाने! गहराई से जाने।
करने का परिणाम जाने! गहराई से जाने।
मैं जी रहा हूँ शरीर के लिये या आत्मा के लिये?
मैं कर रहा हूँ नाम के लिये या अनाम अपनी आत्मा के लिये?
मैं बोल रहा हूँ यश के लिये या अपनी अस्मिता को पाने के लिये?
क्रिया का कारण जानने के बाद परिणाम जानना आसान हो जाता है। और वही हमारी क्रिया का आधार भी बन जाता है।
परिणाम हमारी हर क्रिया का आधार होना चाहिये। यही जिंदगी का कर्मवाद है।

घूंघट की क्यों ओट ले, छिप न सकेगा पाप।
मणि रज से रवि ना छिपे, ज्यों अंगुली की छाप।।