रविवार, 29 जुलाई 2012

30. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

30.  नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

करने और चाहने की क्रिया में बीतता है पूरा जीवन! कुछ हम करते हैं जगत में! कुछ हम चाहते हैं जगत से! हमारा अपना व्यवहार जगत के प्रति कैसा भी हो, पर हम जगत से सदा अच्छे व्यवहार की कामना में जीते हैं।
दूसरों को अच्छा कहने में कंजूसी करने वाला व्यक्ति दूसरों से अपने लिये सदैव अच्छा कहलवाना चाहता है।
यह हमारे सोच की तराजू है। इस तराजू में समतुला का अपना कोई अर्थ नहीं है। समतुला की डंडी स्वतंत्र भी नहीं है। न केवल इसके दोनों पलडे हमारे हाथ में होते हैं बल्कि समतुला की डंडी भी हमारे इशारों पर नाचती है।
पलडों की सामग्री बराबर होने पर भी हम उसे बराबर रहने नहीं देते। हमारे स्वार्थ की अंगुली पलडों को दांये बांयें घुमाती रहती है। जिधर हमें अपना पक्ष नजर आता है, उधर घुमा देते हैं।
हम देखते भी वैसे ही है! हम सोचते भी वैसे ही है! हम बोलते भी वैसे ही है! सच तो यह है कि सत्य से हमें लेना देना नहीं है। हमें अपनी सोच से लेना देना है। हमें अपने स्वार्थ से लेना देना है।
या यों कहें कि सत्य भी यदि हमारे स्वार्थ की फ्रेम में फिट होता है तो ठीक है। अन्यथा हमें उससे कोई मतलब नहीं है।
इसलिये हम सत्य के प्रमाण नहीं खोजते बल्कि अपने स्वार्थ को प्रमाण के आधार पर सत्य साबित करने की मेहनत करते हैं।
फ्रेम हमारी है। फोटो के अनुसार फ्रेम नहीं बनती बल्कि फ्रेम के अनुसार फोटो में काँटछाँट होती है। इससे फोटो का अपनी असली आकार स्थिर नहीं रह पाता है। वह खो जाता है।
हमारी आलोचना जब दूसरा करता है, तो उस व्यक्ति के विषय में हमारे भाव अलग होते हैं! और जब हम स्वयं किसी की आलोचना करने लगते हैं, उन क्षणों के अपने विषय में हमारे भाव अलग होते हैं!
यदि कृत्य की दृष्टि से देखें तो जो भाव अन्य आलोचक के प्रति हैं, वही अपने बारे में भी होने चाहिये! पर हमारी नजर कृत्य पर नहीं होती....! क्योंकि कृत्य को देखने के लिये शुद्ध दृष्टि चाहिये! जबकि हमारी दृष्टि तो छनकर बाहर आती है! वह स्वार्थ की छलनी में छनती है! इस दृष्टि में रोशनी नहीं होती! रोशनी के लिये समतुला की नजर चाहिये! मैं किसी ओर को देखूं या अपने को, नजर एक ही चाहिये! यही नजर सम्यक्दर्शन है।

29. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

29.  नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

हमारा जीवन गलतियों का पिटारा है। सबसे बडी गलती है गलतफहमी में डूबना और उस आधार पर अपनी सोच का निर्माण करना।
गलतियों से हम जितने परेशान नहीं है, गलतफहमियाँ उससे कई गुणा हमारे जीवन को, हमारी सोच को नरक बना देती है।
प्रश्न है कि गलतफहमी क्यों होती है?
इस प्रश्न का समाधान हमारी सोच में छिपा है।
गलतफहमी होने के कई कारण है। मुख्य कारण है- हमारा पूर्वाग्रह!
हम पूर्वाग्रहों में जीते हैं और पूर्वाग्रहों से जीते हैं। ‘में और ‘से के बीच अन्तर है तो थोडा, मगर गहरा है। ‘में वर्तमान की सूचना देता है और ‘से अतीत की! और इस ‘में और ‘से से ही भविष्य का रास्ता निकलता है। क्योंकि एक बार पूर्वाग्रह बना नहीं कि फिर हारमाला शुरू हो जाती है। फिर रूकता नहीं है। एक गलतफहमी दूसरी को जन्म देती है, दूसरी तीसरी को, और इस प्रकार एक अन्तहीन सिलसिला शुरू हो जाता है।
पूर्वाग्रहग्रस्त होना हमारी कमजोर और अज्ञानभरी मानसिकता का परिणाम है। यह अनुमान है जो सच भी हो सकता है, जो गलत भी हो सकता है। पर हम उसे सच मान कर ही जीते हैं। फिर यह अनुमान हमारी सोच को प्रभावित करता है।
उससे गलतफहमी निर्मित होती है। मुश्किल यह है कि गलतफहमी गलतफहमी लगती नहीं है। वह सच ही लगती है। फिर उसका व्यवहार, उसका प्रत्युत्तर सब कुछ वैसा ही हो जाता है।
बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि आँखों देखी बात झूठ हो जाती है। कभी कभी प्रमाण जो सूचना देते हैं, सत्य वैसा नहीं होता।
एक बात तय कर लेनी चाहिये कि संबंधित व्यक्ति से सत्य की जानकारी परिपूर्ण करने के बाद ही हम कोई अनुमान भरोसेमंद मानेंगे। क्योंकि जब हमें पता लगता है कि मेरा अनुमान ठीक नहीं था, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। तब तक हम अपना बहुत नुकसान कर चुके होते हैं। नुकसान सामने वाले का भी बहुत कर चुके होते हैं, जिसकी भरपाई संभव नहीं होती।
इसलिये अपनी नजरों को दो ओर घुमाने की बजाय चारों ओर घुमाना सीखो। सब कुछ देखना और सब कुछ समझना सीखो। कुछ अतीत का इतिहास भी देखो, उसे थोडा उलट पुलट कर भी देखो, ताकि गलतफहमी की गलती न हो।

28. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

28.  नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

जो करता है, वह जरूरी नहीं है कि सही ही हो! वह गलती भी कर सकता है! गलती का अनुमान ‘करने से पहले भी हो सकता है... और बाद में भी हो सकता है।
स्वभावत: बाद में ही अधिक होता है, क्योंकि पहले पता चल जाय तो फिर गलती कर नहीं पाता।
बाद में पता चलना भी बहुत हितकर होता है। वह बोध आगे के लिये आँख खोल देता है।
हमें अपनी गलती का पता अपने से भी चल सकता है, और दूसरों से भी! अपनी गलती का अहसास अपने से होता है, वहाँ इतनी समस्या नहीं होती! पर जब हमें अपनी गलती का अहसास औरों से होता है, उन क्षणों को सहन कर पाना बहुत मुश्किल होता है।
दूसरों की ओर अंगुलियाँ उठाना बहुत आसान होता है, पर अपनी ओर उठी अंगुलियों को झेल पाना निश्चित ही मुश्किल कार्य है।
जुडे हुए हाथों की अपेक्षा उठी हुई अंगुलियाँ ज्यादा उपकारी होती है। क्योंकि जुडे हुए हाथ हमें असावधान बना सकते हैं, जबकि उठी हुई अंगुलियाँ हमें जागरूक करती है।
ऐसा बार बार कहना कि मेरी गलती हो तो बताना, बहुत आसान है। पर जब कोई बताता है, तब चित्त को कषाय भावों से न भरते हुए उपकारक भावों से भरना बहुत मुश्किल होता है।
गलती को गलती के रूप में जानना हमारे लिये बहुत आसान है, पर उसे गलती के रूप में मानना और स्पष्टत:,  प्रकटत: स्वीकारना सहज नहीं होता।
जो ऐसा कर लेता है, वह अपने जीवन को सम्यक्त्व की रोशनी से भर लेता है।

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

27. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

27.  नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
हिसाब किताब के दिन आ रहे हैं। यह समय लेखा जोखा करने का है। कितना कमाया.... कितना गँवाया....! कमाया तो क्या कमाया! और गँवाया तो क्या गँवाया!
कमाने और गँवाने में मूल्यवान यदि वह है जो कमाया है, तो निश्चित ही हमने कुछ पाया है।
और जो कमाया है, उसकी अपेक्षा जो गँवाया है, वह ज्यादा मूल्यवान है, तो निश्चित ही हम हार गये हैं।
गत वर्ष की दीपावली के बाद आज इस दीपावली तक हमने एक साल जीया है। मैं एक साल बूढा हो गया हूँ। मेरी उम्र में एक साल का इज़ाफा हुआ है। आज मुझे इस साल भर की अपनी मेहनत का परिणाम सोचना है।
साल भर में मैंने क्या किया? आज का दिन आगे की ओर मुँह करके आगे बढने का नहीं है।
आज का दिन तो पीछे मुड कर अतीत में छलांग लगाने का है।
अच्छी तरह अपने अतीत को टटोलना है। लेकिन अतीत को केवल देखना है। उसे पकड कर बैठ नहीं जाना है।
उसे देखते रहने से क्या होगा? कितना ही अच्छा अतीत हो, उसमें जीया तो नहीं जा सकता। क्योंकि जीना तो वर्तमान में ही होता है।
अच्छे अतीत को निहार कर वर्तमान में रोना नहीं है। आ सकता है रोना क्योंकि वर्तमान उतना अच्छा नहीं ह
तो बुरे अतीत को देख कर वर्तमान में अहंकार भी नहीं करना है। आ सकता है अभिमान अपने उपर कि मैंने कितना अच्छा पुरूषार्थ किया कि अतीत इतना खराब होने पर भी मैंने अपना वर्तमान कितना अच्छा बना दिया!
सीख लेनी है अतीत से, लक्ष्य बनाना है भविष्य का और जीना है वर्तमान में!
दीपपंक्तियों के प्रकाश में यह तय करना है कि मेरा साल कैसे बीता!
यह तो तय है कि यह सोच मेरे अतीत को बदल नहीं सकती। जो बीत गया, वह बीत गया। उस हुए को अनहुआ नहीं किया जा सकता।
पर उस अतीत की क्रिया और उसके वर्तमान परिणाम को देखकर मैं अपने भविष्य को तो बदल ही सकता हूँ।
अपने भविष्य की रूपरेखा बनाकर अपना वर्तमान जीवन जीना, यही तो दीपावली की सीख है।
आज अपना हिसाब करना है। मेरा स्वभाव कैसा रहा! और जानना है कि मैं नफे में रहा या घाटे में रहा।
खोया एक साल और पाया क्या? अपने से ही यह प्रश्न करना है! अपने से ही इसका उत्तर पाना है। और उस आधार पर आने वाले साल के लिये संकल्पबद्ध हो जाना है।

26. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

26. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
हमारे पास केवल ‘आज है। ‘आज ‘कल नहीं है। और ‘आज को ‘कल होने में समय लगेगा। आज का उपयोग होने के बाद ‘आज ‘कल में बदल भी जायेगा तो कोई चिंता की बात नहीं होगी।
पर उपयोग किये बिना ही ‘आज यों ही यदि ‘कल में बदल गया तो निश्चित ही हम अपने आपको क्षमा नहीं कर सकेंगे।
यह तय है कि ‘आज को कल में बदलने से रोका नहीं जा सकता। कोई नहीं रोक सकता। तीर्थंकर भी आज को ‘कल में बदलने से रोक नहीं पाये थे। उन्होंने भी उसका उपयोग किया और सिद्ध हो गये।
जो उपयोग करता है, बल्कि कहना चाहिये कि जो सम्यक् उपयोग करता है, वह सिद्ध हो जाता है। आज ही यथार्थ है। क्योंकि आज ही हमारे सामने है।
कल का विचार किया जा सकता है... सोचा जा सकता है... उसमें डुबकी लगायी जा सकती है... पर उसमें जीया नहीं जा सकता। चाहे वह कल बीता हुआ कल हो, या आने वाला, हमारे जीने के लिये उसका महत्व उसके ‘आज रहने पर या ‘आज बनने पर ही था या होगा।
हिन्दी भाषा का कल शब्द महत्वपूर्ण है। चाहे बीते दिन के लिये प्रयोग करना हो या आने वाले दिन के लिये.... दोनों के लिये ‘कल शब्द का ही प्रयोग किया जाता है। दोनों कल में कोई विशेष अंतर नहीं है, जीवन की अपेक्षा से!
हालांकि समझ की अपेक्षा से अंतर है। क्योंकि बीता कल हमारी परीक्षा का प्रश्न पत्र था, जिसकी उत्तरपुस्तिका हमने कल जमा करवाई थी। ‘आज उसका परिणाम है। हम प्रश्नपत्र की उस उत्तर पुस्तिका में ‘आज के रूप में अपना परिणाम खोज सकते हैं। बीते कल को देखकर हम आने वाले कल का निर्णय कर सकते हैं। दोनों कल का महत्व इतना ही है।
पर निर्णय तो आज ही करना होगा! सोचना भी आज ही होगा! लाभ हानि के आंकडे भी आज ही लिखने होंगे!
समय का अर्थ ही आज है। जो बीत गया, वह अब समय नहीं रहा। समय की परिभाषा केवल वर्तमान के इर्दगिर्द घूमती है। जो बीत गया या जो आने वाला है, वह इतिहास या भविष्य हो गया।
समय वर्तमान की सूचना देता है। क्योंकि उसी पर हमारा अधिकार है। उसे पाने या छोडने का अधिकार हमें नहीं है। हमें केवल उसके उपभोग, उपयोग का अधिकार है।
परमात्मा महावीर का सुप्रसिद्ध सूत्र- ‘समयं गोयम मा पमायए हमें प्रतिपल जागरूक रहने की सूचना देता है।

बुधवार, 25 जुलाई 2012

25. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

25. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
सम्राट् ने साधु को संसारी बनाना चाहा है। उसने साधु बनने का कारण भी जानना चाहा है। ‘मैं अनाथ था, इसलिये साधु बन गया इस कारण को जानकर वह प्रसन्न हुआ है, क्योंकि उसने भी इसी कारण का अनुमान किया था।
अपने अनुमान को सही जानकर आनंदित हुआ है। वह दर्प से दपदपा उठा है। उसने अहंकार भरी हुंकार के साथ कहा है- आओ! मेरे साथ आओ, साधु! मैं तुम्हारा नाथ बनूँगा!
साधु मुस्कुराया है। उसने आँखों में आँखें डालकर कहा है- जो खुद का नाथ नहीं है, वह किसी और का नाथ कैसे बन सकता है। तूं तो स्वयं अनाथ है, फिर मेरा नाथ कैसे बनेगा!
और सम्राट् की आँखें लाल हो गई है। पर उसकी लाल आँखों पर साधु की निर्मल, पवित्र और स्थिर आँखें हावी हो गई है। उन आँखों में उसे रहस्य भरी गहराई नजर आई है।
तेरा है क्या राजन्! और तो और, यह शरीर भी तुम्हारा नहीं है। फिर क्यों तुम नाथ होने का ढोंग कर रहे हो!
मेरे द्वारा दिये गये उत्तर में ‘अनाथ शब्द का सही अर्थ तुम नहीं लगा पाये हो, राजन्! तुम अनाथ की जो परिभाषा करते हो, वह अलग है। उस अपेक्षा से मैं अनाथ नहीं था। धन, सत्ता, परिवार सब कुछ मेरे पास था, फिर भी अनाथ था। क्योंकि मैं असह्य पीडा से भर गया था। मेरा परिवार मेरे दर्द के कारण आँसू बहाते थे, दवाई लाते थे, चंदन का लेप करते थे, पर मेरी पीडा को बाँट नहीं सकते थे।
और मेरी आँखों में प्रश्नचिह्न तैरने लगा था। सब कुछ होने पर भी मैं अकेला हूँ। और तभी एक संत ने मेरे कक्ष में प्रवेश किया था। उन्होंने कहा था- वत्स! दुख तो खुद को ही भोगना होता है। इसलिये दूसरों की शरण में सुख मत खोजो! सुख पाना है तो अपनी शरण में जाओ। अपने मालिक बनो। जो दूसरों का मालिक बनने की कोशिष करता है, वह तो अनाथ होता है। तुम्हें नाथ बनना है तो अपने नाथ बनो। और मैं अपनी शरण में आ गया।
परमात्मा की स्तुति में गाया जाने वाला यह श्लोक कितनी गहराई समेटे है-
अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम।
और कोई शरण नहीं है। जब भी जिस किसी का शरण लिया है, उसने मेरा साथ छोड दिया है। अब तो केवल हे परमात्मन्! तेरा ही शरण है। परमात्मा का शरण लेना, अपनी आत्मा का शरण लेना है। आत्मा को सर्वस्व मान कर उसे संपूर्ण भाव से स्वीकार करते हुए उसके अनुभव-रस में डूब जाना है।

24. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

24.  नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
दृश्य तो जैसा है, वैसा ही रहता है। दृश्य नहीं बदला करता। दृष्टि को बदलना होता है! हमें बदलना होता है।
और हमारी मुसीबत यह है कि हम सदैव दृश्य बदलने की ही कामना करते हैं, हमारा पुरूषार्थ भी दृश्य बदलने के लिये होता है।
यदि मैं न बदला तो दृश्य बदल भी जायेगा तो क्या हो जायेगा?
क्योंकि दृश्य वैसा दिखाई नहीं देता, जैसा वह होता है। बल्कि दृश्य वैसा दिखाई देता है, जैसे हम होते हैं। हम अपनी आँखों पर चढे चश्मे के रंग को दृश्य पर स्थापित करते हैं। संसार हमारी ही दृष्टि का हस्ताक्षर है।
सूखी घास को खाने से इंकार करने वाले घोडे की आँखों पर जब गहरे हरे रंग का चश्मा बिठा दिया जाता है तो, वह उसी सूखी घास को हरी मान कर बडे चाव और स्वाद से खा जाता है। यह दृष्टिकोण का अन्तर है।
उसी संसार में ज्ञानी भी रहता है और उसी संसार में अज्ञानी भी रहता है। दृश्य वही है, लोग वही है, सृष्टि वही है, पेड पौधे वही है, घटनाऐं वही है, शब्द वही है, प्रेम मोह का जाल वही है! सब कुछ एक सा है। अन्तर दृष्टिकोण का है।
ज्ञानी उसी दृश्य से अनासक्ति का विकास करता है और अज्ञानी उसी दृश्य से आसक्ति का विस्तार करता है।
अध्यात्मोपनिषद् प्रकरणम् का यह श्लोक यही घोषणा करता है-
संसारे निवसन् स्वार्थसज्ज: कज्जलवेश्मनि।
लिप्यते निखिलो लोको, ज्ञानसिद्धो न लिप्यते।।35।।
काजल का घर है। जो भी छुएगा, काला हो जायेगा। पर हर व्यक्ति नहीं है। जो अज्ञानी है, वही उससे लिप्त होगा। जो ज्ञानी है, ज्ञानसिद्ध है, वह लिप्त नहीं होता।
यह संसार काजल का ही घर है, पर उसके लिये जो लिप्त है, जो आसक्त है, जिसकी आँखों पर पट्टी चढी है।
उसके लिये मुक्ति का मंगल द्वार है, जो निर्लिप्त है, जो अनासक्त है, जिसने दृश्य की यथार्थता को समझकर अपनी दृष्टि यथार्थ बनाली है।
अपने दृष्टिकोण को बदलना ही अंधेरे से उजाले की ओर गति करना है।

23. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

23. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
कष्ट और दु:ख की परिभाषा समझने जैसी है। उपर उपर से दोनों का अर्थ एक-सा लगता है, पर गहराई से सोचने, समझने पर इसका रहस्य कुछ और ही पता लगता है।
कष्टों में जीना अलग बात है और दु:ख में जीना अलग बात है। कष्ट जब हमारे मन को दु:खी करते हैं तो जीवन अशान्त हो जाता है। और कष्टों में भी जो व्यक्ति मुस्कुराता है, वे जीवन जीत जाते हैं।
कष्ट तो परमात्मा महावीर ने बहुत भोगे, परन्तु वे दु:खी नहीं थे। उन कष्टों में भी सुख का अनुभव था।
कष्टों को जब हमारा मन स्वीकार कर लेता है, तो यह तो संभव है कि कष्ट मिले, पर वह दु:खी नहीं होता।
कष्टों को जब हमारा मन स्वीकार नहीं करता, तो यह व्यक्ति दु:खी हो जाता है। यों समझे कि स्वीकार्य तकलीफ कष्ट है और अस्वीकार्य तकलीफ दु:ख है।
कष्टों पर हमारा कोई वश नहीं है। पर दु:ख पर हमारा वश है। आने वाले कष्ट तो हमारे पूर्व जीवन का परिणाम है जो भाग्य बनकर हमारे द्वार तक पहुँचा है। पर कष्ट भरे उन क्षणों में दु:ख करना, आने वाले समय में और कष्ट पाने का इन्तजाम करना है।
इस दुनिया में हम कष्टों से भाग नहीं सकते। और बचाव के उपाय सदैव सार्थक परिणाम नहीं लाते। कभी कभी हमारे उपाय व्यर्थ भी चले जाते हैं। क्योंकि यह एक अन्तहीन श्रृंखला है। एक कडी तोडते हैं तो दूसरी कडी उपस्थित हो जाती है। पेट दर्द शान्त होता है तो सिर में दर्द पैदा हो जाता है। दु:खती आँख की दवा की जाती है तो अपेन्डिक्स का दर्द उपस्थित हो जाता है। शरीर ठीक रहता है तो मित्र धोखा दे जाता है। मित्र वफादार होता है तो कोई व्यापारी अपनी नीति बदल देता है। व्यापार ठीक रहता है तो परिवार परेशानी खडी कर देता है। पुत्र कहना नहीं मानता। ये सब ठीक रहता है तो कभी झूठे कलंक का सामना करना पड जाता है। निहित स्वार्थों के कारण बदनामी का शिकार हो जाता है। आदि आदि... एक अन्तहीन श्रृंखला!
कोई भी कितना भी बडा क्यों न हो, उसे संसार में कष्टों का भोग तो बनना ही पडता है। ऐसी दशा में परमात्मा महावीर की वाणी ही उसे दु:ख से बचाती है। कष्टों से बचाने का तो कोई उपाय नहीं है। क्योंकि वह मेरे कृत्यों का ही परिणाम है। पर उन क्षणों में मेरे चित्त में समाधि का भाव, सुख का भाव कैसे टिके, इस सूत्र को समझ लेना है।
और वह सूत्र है- उन कष्टों को मन से स्वीकार कर लेना! जो मिला है, जैसा मिला है, मुझे स्वीकार्य है। क्योंकि मेरे अस्वीकार करने से स्थिति बदल तो नहीं जायेगी। अस्वीकार करने से मात्र दु:ख मिलेगा, पीडा मिलेगी और मिलेगी चित्त की विभ्रम स्थिति!
इससे बचने का उपाय है- प्रसन्नता से स्वीकार करना! यह प्रसन्नता ही हमारे भविष्य की प्रसन्नता का आधार बन जायेगी।

22. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

22. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
संवत्सरी महापर्व निकट है। हमेशा की भांति इस वर्ष भी यह हमारी कुण्डी खटखटाने चला आया है। यह ऐसा अतिथि है, जो आमंत्रण की परवाह नहीं करता। जो बुलाने पर भी आता है, नहीं बुलाने पर भी आता है।
यह ऐसा अतिथि है जो ठीक समय पर आता है। पल भर की भी देरी नहीं होती। जिसके आगमन के बारे में कभी कोई संशय नहीं होता। सूरज के उदय और अस्त की भांति नियमित है।
यह आता है, जगाता है और चला जाता है। जो देकर तो बहुत कुछ जाता है, पर लेकर कुछ नहीं जाता।
यह हम पर निर्भर है कि हम जाग पाते हैं या नहीं! इसे सुन पाते हैं या नहीं! यह अपना कर्त्तव्य निभा जाता है। और हम नहीं जागते तो यह नाराज भी नहीं होता। कितनी आत्मीयता और अपनत्व से भरा है यह पर्व! न नाराजगी है, न उदासी है, न क्रोध है, न चापलूसी है, न शल्य है, न मोह!
वही जानी पहचानी मुस्कुराहट लिये... आँखों में रोशनी लिये... जीने का एक मजबूत जज़्बा लिये..... हमें रोशनी से भरने, जीने का एक मकसद देने, एक मीठी मुस्कुराहट देने चला आता है।
मुश्किल हमारी है कि हम इसे देखते हैं, जानते हैं, पहचानते हैं, सोचते हैं, विचारते हैं, बधाते हैं, गीत गाते हैं, बोलते हैं, महिमा गाते हैं, रंग उडाते हैं, खुशियाँ मनाते हैं... सब करते हैं पर अपनाते नहीं है।
इसे केवल बधाने से काम नहीं चलता है! इसे तो स्वीकारना होता है। अपनाना होता है। वही इसे जी पाता है। उसे ही यह जीना सिखा पाता है।
और मजे की बात यह है कि आता तो यह सर्वत्र है, पर जो इसे स्वीकार कर लेता है, उसे मालामाल कर जाता है। जो स्वीकार नहीं कर पाता, वह गंगा किनारे पहुँच कर भी प्यासा का प्यासा रह जाता है।
पर्युषण पर्व की इस दस्तक में जीवन जीने का राज छिपा है। कषाय का कचरा बहुत जमा किया है, अब इस बाढ में बहादो। कचरे को लाद कर कब तक फिरते रहोगे। यह बोझ तुम्हें जीने नहीं देगा।
इसे उतार कर थोडा हल्का हो जाओ। संबंधों की दुनिया में फिर थोडी मीठास पैदा करो।
फिर ताजगी का अहसास करो। कोशिष करो कि फिर वह या वैसा कचरा दुबारा जमा न हो जाय।
यह चिंता मत करना कि शुरूआत सामने से होगी या मुझसे! तुम तो कर ही लेना। सामने वाला स्वीकार करे, न करे, इसकी भी परवाह मत करना।
तुम तो अपनी ओर से खुशबू बांटकर निश्चिंत हो जाओ। तुम्हारा एक कदम उसे कदम उठाने के लिये स्वत: मजबूर कर देगा। वह खींचा चला आयेगा।
फिर देखना.. कैसी गुलाल उडती है... बहारों में क्या ताजगी आती है... और देखना कि जिन्दगी कितनी ताजगी से भर उठती है।

21. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

21   नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
जीवन पुण्य और पाप का परिणाम है। पूर्व पर्याय {पूर्व जन्म} का पुरूषार्थ हमारे वर्तमान का अच्छापन या बुरापन तय करता है।
जीवन बिल्कुल हमारी इच्छाओं से चलता है। इच्छा के विपरीत कुछ भी नहीं होता। हमारे साथ जो भी होता है, हमारी इच्छा से ही होता है।
मन में पैदा हुए विचारों को ही जिन्हें हम रूचि से सहेजते हैं, इच्छा माना है। परन्तु यहाँ इच्छा का अर्थ  मन में पैदा हुए विचार ही नहीं है। यहाँ इच्छा का अर्थ थोडा व्यापक है। इसमें मन तो मुख्य है ही, क्योंकि बिना मन के तो कोई प्रवृत्ति होती नहीं।
इच्छा का अर्थ है- मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति!
जो भी हमारे साथ हुआ है, होता है, होगा, वह सब इसी का परिणाम है।
होता सब कुछ हमारी इच्छा से है। पर वर्तमान की इच्छा से नहीं, पूर्वकृत इच्छा से!
पूर्व में हमने जैसा सोचा, जैसा बोला, जैसा किया, वही वर्तमान में हमें उपलब्ध होता है।
यह तय है कि उपलब्धि पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। क्योंकि इसकी चाभी हमारे हाथ से पूर्व जीवन में ही निकल चुकी होती है।
पुण्य और पाप का उदय महत्वपूर्ण नहीं है! पुण्य और पाप के उदय के क्षण महत्वपूर्ण नहीं है। उन क्षणों की हमारी विचारधारा महत्वपूर्ण है। क्योंकि वह मानसिकता हमारे भविष्य का निर्माण करती है।
आत्म यात्रा की पोथी में  अतीत के पृष्ठ नहीं, भविष्य के पन्ने महत्वपूर्ण होते हैं। वर्तमान को भी वर्तमान के रूप में ही देखा है, तो महत्वपूर्ण नहीं है। वर्तमान को भी भविष्य के दर्पण में देखने का प्रयास किया है, तो महत्वपूर्ण है।
क्योंकि वर्तमान को तो बहुत जल्दी अतीत का हिस्सा हो जाना है।
अतीत में क्या किया, यह महत्वपूर्ण नहीं है।
वर्तमान में हम क्या कर रहे हैं, यह महत्वपूर्ण है।
वर्तमान में हमें क्या मिला, यह महत्वपूर्ण नहीं है।
भविष्य में हमें क्या पाना है, यह महत्वपूर्ण है।
यह चिंतन ही वह चाबी है, जो हमें वर्तमान में जागृत रखती है। यह सोचकर ही हमें अपनी इच्छा को गति देना है, नियंत्रित करना है, दिशा देनी है।

20 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

20  नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
जीवन को हम गणित से जोड कर जीते हैं। गणित की फ्रेम में ही हमारी सोच गति करती है। अतीत से प्रेरणा लेनी हो, वर्तमान का निर्धारण करना हो या भविष्य की आशा भरी कल्पनाओं में डुबकी लगानी हो, हमारे सोच की भाषा गणित में ही डूबी होती है।
जीवन गणित नहीं है। इसे गणित के आधार पर जीया नहीं जा सकता। आज उसने 1000 रूपये कमाये हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि कल भी वह इतना ही कमायेगा। वह ज्यादा भी कमा सकता है, कम भी!
पर सोच ऐसी ही होती है। यह जानने पर भी कि यह संभव नहीं है। उसका अतीत उसकी गणित को प्रमाणित नहीं करता। फिर भी उसकी आशा भरी सोच उसी गणित से चलती है। यही उसके जीवन का सबसे बडा धोखा है।
वह एक दिन के आधार पर एक मास की उपलब्धि और उसके आधार पर वर्ष भर की उपलब्धि के मीठे सपनों में खो जाता है।
आज मैंने 500 कमाये हैं तो एक माह में 15 हजार और एक वर्ष में एक लाख अस्सी हजार कमा लूंगा। पाँच वर्ष में तो नौ लाख कमा लूंगा।
अभी पाँच वर्ष बीते नहीं है। कमाई हुई नहीं है। होगी भी या नहीं, पता नहीं है। पर नौ लाख के उपयोग की मधुर कल्पनाओं में वह खो जाता है।
गणित में डूबे विचार हर क्षेत्र में करता है। एक घंटे में यदि पाँच किलोमीटर मैं चलता हूँ तो पाँच घंटे में 25 किलोमीटर चलूंगा। वह यह गणित करते समय यह भूल जाता है कि आदमी कोई मशीन तो है नहीं, कि एक जैसी गति कायम रख सके। उसके पाँच थकेंगे, उसका मन थकेगा, विश्राम लेगा। और गति कम हो जायेगी।
कुछ बातों में गणित का मेल बैठता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि हर बात में उसकी भाषा सार्थक हो। दस रूपये में एक किलो सब्जी मिलती है तो यह तय है कि सौ रूपये में दस किलो सब्जी बनेगी। पर इसका अर्थ यह नहीं होता कि जीवन के हर क्षेत्र में यह तर्क काम देता हो।
बचपन में प्रश्नों का एक क्रम सुना करते थे कि सौ मजदूर एक मकान को 12 माह में बनाते हैं तो दो सौ मजदूर मिलकर उसी मकान को कितने समय में बनायेंगे?
गणित के नियमों के आधार पर इसका उत्तर स्पष्ट है कि छह माह लगने चाहिये। प्रश्न फिर दोहराया जाय- कि चार सौ मजदूर काम करेंगे तो कितना समय लगेगा? उत्तर मिलेगा- तीन महिने!
इस तर्क के आधार पर तो 7200 मजदूर यदि मिल जाय तो मात्र पाँच दिन का ही समय लगना चाहिये! और यदि 8 लाख 64 हजार मजदूर तो उसी मकान को सिर्फ एक घंटे में बना देंगे!
यथार्थ में क्या यह संभव है? नहीं! क्योंकि गणित की अपनी सीमा है। जबकि जीवन का अपना अलग गणित है। जो गणित जैसा दिखाई नहीं देता, फिर भी होता उसमें गणित ही है।
और उसकी गणित का आधार हमारा अपना जीवन है। जीवन ही जीवन का निर्माण करता है। पूर्व जीवन वर्तमान जीवन का निर्माण करता है। पूर्व जीवन का गणित ही हमारे वर्तमान जीवन की गणित का निर्धारण करता है।
हमें बाह्य गणित में नहीं उलझना है। क्योंकि वह यथार्थ नहीं है। उस गणित से सपने देखे जा सकते हैं। सपनों को सपना मानें तो तो अच्छा है। पर ज्योंहि सपने को यथार्थ मानना शुरू किया कि धोखा शुरू हो जाता है।
उस धोखे से बचना है। इसी में यथार्थता का बोध है।

19 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

19  नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
एक व्यापारी अपनी दुकान पर बैठा था। ग्राहक खडा था। महत्वपूर्ण सौदा चल रहा था। सामान तौला जा रहा था! थैलों में भरा जा रहा था। व्यापारी अपने काम में एकाग्र था। ग्राहक की नजर भी पूर्ण एकाग्र थी। सामान कुछ ज्यादा ही तौलना था। पाँच मिनट बीत चुके थे। आधा काम हो चुका था।
इतने में एक भिखारी भिक्षा पात्र हाथ में लिये भगवान् के नाम पर कुछ मांगने के लिये आया। उसने अलख लगाई। ग्राहक ने उस ओर मुड कर भावहीन चेहरे से उसे देखा। व्यापारी का ध्यान भी उस ओर चला गया।
तुरंत व्यापारी ने अपना काम छोडा! गल्ले के पास में गया। एक रूपया निकाला। भिखारी को देकर फिर काम में लग गया।
इस दृश्य ने उस ग्राहक के मन में कई प्रश्न जगा दिये। उसने कहा- भाई साहब! आपने काम बीच में छोडकर वहाँ क्यों गये! यदि आपको एक रूपया भिखारी को देना ही था तो हाथ का काम पूरा करके भी दिया जा सकता था।
-क्यों? व्यापारी ने प्रतिप्रश्न किया!
-क्यों क्या? आखिर था तो भिखारी ही! कहाँ जाता! आप कहते कि ठहर! मैं अभी रूपया देता हूँ! वो बिचारा कहाँ जाता! पाँच मिनट तो क्या आधा घंटा भी कहीं नहीं जाता! इसलिये मुझे आपका यह व्यवहार समझ में नहीं आया कि आप सामान तौलना अधबीच में छोडकर रूपया देने वहाँ क्यों गये?
उस व्यापारी ने कहा- भैया! तुम्हारी बात तो सही है। यदि मैंने उसे खडा रहने का कहा होता तो यह आधे घंटे तक भी खडा ही रहता! परन्तु मेरे मन में यह विचार आया कि जब इसे देना ही है तो इंतजार क्यों करवाना!
इसे जल्दी पैसे देकर रवाना करूँगा तो इसका समय बचेगा... और यह दो चार घर ज्यादा घूमकर ज्यादा कुछ पा सकेगा! जब देना ही है तो सामने वाले की लाचारी का लाभ उठाकर देर तक उसे प्रतीक्षा करवाकर और संशयग्रस्त बनाकर खडा रखने से क्या लाभ! आखिर वह भी एक इन्सान है। माना कि पुण्य की अल्पता इसे इस जीवन में मिली है। पर उसके पुण्य की अल्पता का मजाक बना कर हम अपने पुण्य को अल्प क्यों करे?
उस व्यक्ति का यह प्रत्युत्तर एक सीख है जो जीवन में उतारने जैसी है।
देना है... पास में भी है... फिर देर क्यों होती है!
धर्म को समझे बिना धर्म किया नहीं जा सकता। धर्म तो समझ है! जहाँ समझ है, वहाँ धर्म है! समझ के अभाव में तो अधर्म ही हो सकता है। किसी को व्यर्थ प्रतीक्षा करवाना धर्म नहीं है। मात्र अपना महत्व बढाने के लिये दूसरों को परेशान करना धर्म नहीं है।
धर्म वह है जो हमारे अन्तर को पवित्र और व्यवहार को सरल बनाता है।

हो मानस में पवित्रता, होय सरल व्यवहार।
यही धर्म का अर्थ है, यही धर्म का सार।।

18 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

18  नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
हम क्या जानते हैं? यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है! जितना महत्वपूर्ण यह है कि हम क्या समझते हैं? क्योंकि जानना बुद्धि का परिणाम है... समझना आचार का परिणाम!
जानकारी तो हमारी बहुत है! और नई नई बातें जानने के लिये हम प्रतिक्षण लालायित रहते हैं।
पर समझने के लिये हमारा मानस और हृदय बहुत कम तैयार होता है। समझ के अभाव में हमारी जानकारी व्यर्थ है।
जानकारी के क्षेत्र में वर्तमान का युग बहुत आगे बढ गया है। समझने के क्षेत्र में उतना ही पीछे रह गया है।
खाने से पेट भरता है, इस जानकारी के साथ यह समझ जरूरी है कि उस खाने से पेट में विकृति तो पैदा नहीं होगी!
बिना जानकारी के जीवन का निर्माण नहीं होता!
तो बिना समझ के ‘अच्छे जीवन का निर्माण नहीं हो सकता!
दोनों एक दूसरे के पूरक है।
आज जानकारी का जमाना है। कम्प्यूटर के जरिये पल भर में पूरे विश्व का ज्ञान हम प्राप्त कर रहे हैं। पर जीवन को समझ नहीं मिल रही है। जीवन का तनाव तो बढता ही जा रहा है।
जानकारी ने संबंधों को विस्तार तो बहुत दिया है। पर समझ के अभाव में संबंधों का विकास नहीं हो पाया है।
जानकारी विस्तार देती है! समझ आत्मीयता देती है।
जानकारी की भाषा तर्क की होती है... न्याय की होती है। जबकि समझदारी की भाषा समझौते की होती है।
जानकारी वर्तमान देखती है! वह उस पर बहस करती है! वह परिणाम की परवाह नहीं करती!
समझ भविष्य देखती है! परिणाम देखना... और परिणाम पाना पसन्द करती है!
वह परिणाम के लिये अपने वर्तमान को बदलते भी देर नहीं करती! वह अकड नहीं रखती! वह अकड कर बैठ नहीं जाती! वह परिवर्तन में भरोसा करती है... यदि परिवर्तन परिणामलक्षी हो!
लोहे को सिर पर उठाकर चांदी की खदान के पास से गुजरने वाला व्यक्ति यदि यह निर्णय लेता हो कि मैंने जो सिर पर उठा लिया सो उठा लिया... मैं बार बार नहीं बदलूंगा! इतनी देर से मैं इसे उठा कर लाया हूँ! वह क्या व्यर्थ था? तो निश्चित ही समझना चाहिये कि वह समझ से कोसों दूर है।
समझ उसे इशारा करेगी कि छोड इसे! और ग्रहण करले उसे जो ज्यादा मूल्यवान् है।
मुश्किल तो यह है कि हम जानते बहुत हैं! समझते हैं, ऐसा दर्शाते भी बहुत है! पर वह समझ समझ कहाँ है, जो हमारे आचरण में नहीं उतरती! जो समझ कर भी नहीं समझता, उससे बडा नासमझ और कौन होगा ?
आचरण के अभाव में जानकारी कचरा है! समझ वह है, जो जीवन में उतरती है! जो जीवन की दशा और दिशा बदलती है!

समझ उसे ही मानिये, जो बदले आचार।
बाकी सब करकट कहा, बूठा ज्यों औजार।।

17 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

17 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
जिन्दगी प्रतिक्षण मौत की ओर अग्रसर हो रही है। बीतते हर पल के साथ हम मर रहे हैं। इस जगत में हमारा अस्तित्व कितना छोटा और बौना है....!
सारी दुनिया के बारे में पता रखने वाले हम अपने बारे में कितने अनजान है! हमें अपने ही कल का पता नहीं है। कल मेरा अस्तित्व रहेगा या मैं इस दुनिया से विदा हो जाउँगा, हमें पता नहीं है।
सोचने के क्षणों में हम अपने भविष्य को कितना लम्बा आंकते हैं! और अपने उस अनजान भविष्य के लिये कितने सपने देखते हैं! उन सपनों को पूरा करने के लिये बिना यह जाने कि वे सपने पूरे होंगे भी या नहीं या उन सपनों के परिणाम जानने के लिये मैं रहूँगा भी या नहीं, कितनी तनतोड मेहनत करते हैं!
उर्दु शायर की एक कविता का यह वाक्य कितना मार्मिक संदेश दे रहा है-
सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं!
इकट्ठा करने में हमारे मन का कोई सानी नहीं है। वह मात्र एकत्र करना जानता है। क्योंकि उपभोग की तो सीमा है! एकत्र करने की कोई सीमा नहीं है। एक यथार्थ है, एक सपना है। यथार्थ की सीमा होती है, सपनों की कोई सीमा नहीं होती!
खबर हमें आने वाले पल की भी नहीं है और जीते हैं ऐसे सैंकड़ों साल और जीना है। जानते हैं कि नहीं जीना है! चले जाना है! पर यह जानकारी हमारे जीवन में नहीं उतर पाती।
और उस छूट जाने वाली दुनिया के निर्माण में हम अपनी कितनी ताकत लगाते है! कितना क्रोध करते हैं! कितना राग-द्वेष करते हैं! कितना मिथ्या वचनों का प्रयोग करते है! कितना धोखा देते हैं!
खून पसीना एक कर बनाई... बसाई यह दुनिया पल भर में हमारे लिये बेगानी बन जाती है। एक नये अनजान सफर के लिये हम निकल पडते हैं! वहाँ फिर एक नई दुनिया बनाने... बसाने के सपने देखने प्रारंभ करते है।
बस! यही तो है हमारा जीवन! दुनिया बनाना... छोड कर चल देना.... फिर दुनिया बनाना... छोड कर चल देना! फिर मकान, दुकान, परिवार, शत्रु, मित्र, तेरा, मेरा करते हुए दुनिया का निर्माण! हम अनंत काल से यही करते आ रहे हैं। अपने जीवन के साथ अपने ही द्वारा हो रहे इस मजाक को हमने अभी तक समझा नहीं है।
जीना है अपने लिये! उसके लिये नहीं, जिसे छोड देना है! बल्कि उसके लिये जो मेरा सदा का साथी है! जो कभी न अलग हुआ है... न होगा!

जीना है तुमको यहाँ, आतम हेतु विचार!
पुद्गल तो पर द्रव्य है, तज उसका विस्तार।।

16 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


इस जगत में कोई भी व्यक्ति अपमान करने योग्य नहीं है। सम्मान करने योग्य व्यक्ति भरे पड़े हैं। खराब से खराब काम करने वाला व्यक्ति भी निंदा योग्य नहीं है। सामान्य से सामान्य अच्छा कार्य करने वाला भी परम अभिनंदनीय है। क्योंकि खराब या अच्छा काम करने वाला कल क्या बनेगा, हमें पता नहीं है! हमें उससे मतलब भी नहीं है। पर हमारे द्वारा निंदा या सम्मान की की गई क्रिया हमें अच्छा या बुरा फल अवश्य दे देती है।
हमारी प्रतिक्रिया ‘कि्रया की अच्छाई या बुराई को कम या बाद में प्रकट करती है... हमारे अपने अच्छे या बुरे स्वभाव को पहले प्रकट करती है। अच्छी प्रतिक्रिया करने का हमें जन्मसिद्ध अधिकार है, बुरी प्रतिक्रिया करने का हमें कोई अधिकार नहीं है।
जीव की भवितव्यता का हमें कोई पता नहीं है। आज दिखाई देने वाला खराब व्यक्ति कब अच्छा हो सकता है। कब उसके पुण्य उदय में आयेंगे... कब भवितव्यता जोर मारेगी और जीवन बदल जायेगा। तब उसे उसके अतीत के लिये दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
और अतीत तो हर आत्मा का संसार से भरा हुआ ही होता है। जो भी सिद्ध बना है, उसका भी अतीत तो राग द्वेष से भरा हुआ ही था। ‘कल तो हर आत्मा का कषाय से भरा हुआ ही होता है।
इसलिये महत्वपूर्ण ‘कल नहीं है, महत्वपूर्ण ‘कल है।
बीता हुआ कल महत्वपूर्ण नहीं हो सकता। आने वाला कल ही महत्वपूर्ण होता है।
वह क्या है.. यह महत्वपूर्ण नहीं है। वह क्या होगा, यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि इसमें भविष्य का राज छिपा है। इसमें उसके अस्तित्व के आयाम छिपे है।
इसलिये अतीत कितना ही खराब क्यों न हो, उसे दोष मत दो! उसका अपमान मत करो! उज्ज्वल भविष्य का सदैव बहुमान करना सीखो।
दुर्गुणों का अपमान करने के बजाय सद्गुणों का सम्मान करना सीखो। विकारों का पैदा होना, आश्चर्यजनक घटना नहीं है, क्योंकि ये तो हमारी चेतना के अनादिकाल के संस्कार है। हर भव में यही किया है। आश्चर्यजनक घटना तो यह है, जब ऐसे वातावरण में भी हमारे चित्त में पवित्रता और सद्गुणों का संचार होता है। सद्गुणों का सम्मान हमारे अन्तर को सद्गुणों से भर देगा।

कोई भी ना है बुरा, परिणति का परिमाण।
परिवर्तन में देर ना, भावी है अनजान।।

शनिवार, 21 जुलाई 2012

15 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


जो जुडता है, वह डूबता है। जुडने का अर्थ है- किसी से जुडना। उस किसी में व्यक्ति भी हो सकता है, पदार्थ भी, पुद्गल भी!
जुड़ना हमेशा पर से ही होता है। अपने से कोई नहीं जुड सकता। अपने से जुडने का कोई उपाय भी नहीं। क्योंकि मैं मुझे कैसे मिल सकता हूँ!
यदि मैं कहता हूँ कि मैं मुझसे मिला तो इससे तो यह सिद्ध होता है, मैं पहले मुझ में नहीं था। कोई भी नई घटना, पूर्व के नास्तित्व को सिद्ध करती है।
आज ऐसा हुआ है, इसका अर्थ हुआ कि पहले वैसा नहीं था।
आज मैं अपने से जुडा तो इसका अर्थ हुआ कि पहले मैं अपने से अलग था।
अपने से अलग होने का तो कोई उपाय ही नहीं है।
अपने को तो मात्र जानना होता है... मात्र अनुभव करना होता है।
हम जो जीवन जी रहे हैं, इसमें हम होने पर भी नहीं जानते! मैं अपने पास हूँ फिर भी नहीं जानता हूँ!
अनंतकाल की यात्रा में सदा सदा मैं पर से जुडता आया हूँ! जीने में और जुडकर जीने में अन्तर है। चिपकना नहीं है।
दर्पण की तरह जीवन जीना होता है। उसके सामने से हजारों अच्छे बुरे लोग, पदार्थ सब निकलते हैं। उसमें नजर भी आते हैं। पर वह कोरा का कोरा रहता है। एक पदार्थ को भी अपने में नहीं बसाता।
गुरू ने शिष्यों को प्रात:कालीन प्रार्थना के पश्चात् उपदेश देते हुए कहा- तुम जब भी नदी में उतरो, तब एक बात का ख्याल रखना कि पानी का स्पर्श नहीं होना चाहिये।
शिष्यों ने सोचा- ऐसा कैसे हो सकता है। नदी पार करनी है चलकर तो पानी का स्पर्श तो करना ही होगा। उन्हें लगा- गुरू महाराज बडे सिद्ध साधक प्रतीत होते हैं। वे जब भी नदी पार करते होंगे, पानी के उतर हवा में तैरकर उडकर पार करते होंगे।
दूसरे दिन गुरू महाराज को उस पार जाना था तो नदी में उतरना पडा। शिष्यों को यह देख कर बडी हैरानी हुई कि गुरू महाराज हवा में नहीं तैर रहे हैं बल्कि पानी में उतर कर उस पार जा रहे हैं।
पास से देखा तो पाया कि उनके वस्त्र, उनके अंग सब गीले हो चुके हैं।
शिष्यों ने समाधान पाने की अपेक्षा से गुरू से पूछा- भगवन्! आप तो हमें पानी का स्पर्श न करने का उपदेश दे रहे थे, जबकि स्पर्श तो आपने भी किया है।
गुरू ने कहा- भैया! मैं कहाँ पानी का स्पर्श कर रहा था। स्पर्श तो मैं आत्मा का ही कर रहा था। पानी मुझे स्पर्श कर रहा था। मैं पानी को स्पर्श नहीं कर रहा था।
इस असंग भाव का अर्थ है- जीना है, पर जुडना नहीं है! यही संवर है, यही निर्जरा का कारण है। 

15 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

14 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


प्रवचन में ध्यान की चर्चा चल रही थी। जो परमात्मा का ध्यान करता है, वह तिर जाता है। प्रश्न उपस्थित हुआ- ध्यान क्या है?
इस जगत में ध्यान के प्रयोग बहुत चल रहे हैं। इसलिये मन का भ्रम में पडना आसान है। कोई कहता है- ऐसे बोलो तो ध्यान होगा। कोई कहता है- ऐसे बैठो तो ध्यान होगा! कोई कहता है- यह जाप करो तो ध्यान होगा।  कोई श्वास पर आधारित पद्धति बताता है तो कोई विशेष तस्वीर अपनी बंद आँखों में बिठाकर वहाँ मन रमाने को कहता है। सबके अपने तर्क है! सबकी अपनी श्रद्धा है! सबके अपने सिद्धांत है!
कुछ करना ध्यान है या कुछ नहीं करना ध्यान है?
इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिये हमें परमात्मा महावीर की देशना का रहस्य खोजना होगा। उनकी वाणी में ही इन प्रश्नों का समाधान प्राप्त होगा।
असल में सबसे बडी समस्या हमारा मन है! और सबसे बडा सहयोगी भी हमारा मन है। क्योंकि कुछ करना है, यह निर्णय भी हमारा मन करता है तो कुछ नहीं करना है, यह निर्णय भी करने वाला तो मन ही है।
फिर जहाँ मन है, वहाँ सतत विचार है। विचारों का प्रवाह तो रूक ही नहीं सकता।
हाँ! यह हो सकता है कि उसकी दिशा एक हो। विचारों का जो प्रवाह विभिन्न दिशाओं में बहता था, उसे अभ्यास पूर्वक एक दिशा में ही मोड दिया जाय! पर प्रवाह तो है। ठहरना तो मन का स्वभाव ही नहीं है।
मन के ठहरने की कल्पना की जा सकती है। इस विषय पर प्रवचन हो सकता है। समझाया जा सकता है, पर समझना बहुत मुश्किल है। यह क्रियान्वित नहीं हो सकता। क्योंकि मन का प्रवाह रूक नहीं सकता।
जब प्रवाह रूकेगा ही नहीं, तो ध्यान कैसे होगा?
कुछ क्षणों के लिये शांति पाना तो बहुत आसान है। शांत बैठे हैं तो शांति मिलेगी। पर वह तो क्षणिक ही होगी। ध्यान का परिणाम तो स्थायी होना चाहिये... क्षणिक नहीं।
असल में ध्यान का अर्थ निर्विचार दशा से नहीं है। क्योंकि यह संभव नहीं है।
परमात्मा महावीर ने कहा है- हमारा मन ही हमारा शत्रु है। और हमारा मन ही हमारा मित्र है। असल में मन में जो विचारों का प्रवाह गतिमान् है, उससे अपने आपको... अपने मन को... जोड देना, यह संसार है। और उन विचारों को साक्षीभाव से... बिना जुडे... मात्र देखना... सहजता से देखना...यही ध्यान है। देखने के लिये प्रयास भी नहीं चाहिये। नजर पड गई तो देख लिया! देख लिया तो मात्र देखा! उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं है। यही निर्विचार दशा है।
जिन विचारों में मैं नहीं होता हूँ, वही निर्विचार स्थिति है।
यही ध्यान की स्थिति है। इसी स्थिति में हम अपनी आत्मा के निकट पहुँचते हैं... और अथाह आनंद को प्राप्त करते हैं।

उससे जो मन जुड गया, हुआ जगत विस्तार।
साक्षीभाव जो हो गया, वही ध्यान निविचार।।

13 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


एक प्रश्न मेरे सामने उपस्थित हुआ है। हम वीतराग परमात्मा के स्तवन में उनकी स्तुति करते हुए उनके सामने ‘इच्छा पूर्ति की याचना करते हैं।
हे परमात्मन्! मेरी इच्छा पूर्ण करो!
याचना के भावों में परमात्मा का सामथ्य भी ‘इच्छा पूरक के रूप में व्यक्त होता है।
प्रश्न है- परमात्मा या कोई भी क्या किसी की इच्छा पूर्ण कर सकते हैं?
क्योंकि इच्छाओं को तो कभी पूर्ण किया ही नहीं जा सकता! क्योंकि इच्छाओं की आदि तो होती है, पर अन्त नहीं होता!
न इच्छाओं का कोई क्रम होता है... न उनके स्वरूप में कोई स्थिरता होती है!
पूरी होते न होते नई इच्छा का जन्म हो जाता है! यह क्रम नित्य निरंतर चलता ही जाता है।
तो फिर परमात्मा के लिये ‘वांछित पूरक विशेषण का प्रयोग किस अर्थ में है! परमात्मा की देशना तो इच्छाओं के विरोध में होती है। उत्तराध्ययन सूत्र के आठवें अध्ययन के ‘छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं {इच्छाओं को रोकने से ही मोक्ष मिलता है} इस सूत्र में परमात्मा महावीर इच्छाओं को रोकने... उनके निरोध पर जोर देते हैं। फिर हम उन्हें ‘इच्छा पूरक कैसे और क्यों कहते है?
यहाँ पूरक या पूर्ति का अर्थ समझना होगा। हकीकत में पूरक का अर्थ है- पूरा करने वाला! पूरा करना अर्थात् समाप्त करना! किसी बात की समाप्ति पर हम कहते हैं- बात पूरी हो गई। उस बात का कोई अर्थ नहीं रहा। अब कुछ नहीं बचा।
इच्छाओं को ‘पूर्ण करना ‘पूर्ण करना नहीं है। इच्छाओं को समाप्त करना ‘पूर्ण करना है। वीतराग परमात्मा इसी अर्थ में इच्छाओं को ‘पूर्ण करते हैं। एक बार पूर्ण होने के बाद दुबारा उसका प्रारंभ नहीं होता। जो पुन: प्रारंभ हो जाय तो समझो अभी पूरी नहीं हुई। एक बार इच्छाऐं पूर्ण हो जाती है, फिर दुबारा जन्म नहीं लेती... इसलिये इच्छाओं की पूर्ति के साथ संसार भी समाप्त हो जाता है।
परमात्मा इच्छाओं का यथार्थ स्वरूप हमें समझा देते हैं। जो इच्छाओं के स्वरूप को समझ लेता है, वह इच्छाओं से विरत हो जाता है... वह इच्छाओं को पूर्ण कर लेता है।

थाह नहीं है चाह की, अन्तहीन है काम।
चाह पूर्ण हो लगे तभी, जग पर पूर्ण विराम।।

12 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

हमने अपने चित्त का अतिविस्तार किया है। विस्तार की चाह में दौड लगाते चले जा रहे हैं। इस अति सुदीर्घ दौड का परिणाम केवल जमीन मापना है। जमीन मापने के सिवाय हमने और कुछ नहीं किया है। पाया कुछ भी नहीं है। प्राप्ति के नाम पर शून्य है। पीछे की दौड का परिणाम शून्य प्रतीत होने पर भी आगे पाने की चाह में दौड और ज्यादा तीव्र हो रही है।
जन्मों जन्मों से दौडने का ही उपाय, अभ्यास कर रहे हैं। अपनी क्षमता मापने का समय कहाँ है हमारे पास? इसलिये क्षमता से अधिक दौड जारी है। उस दौड में हम अपने अस्तित्व को खो बैठे है। क्योंकि नजर अस्तित्व नहीं आता! जिसके लिये दौड रहे है, वही आता है।
और जिसके लिये दौड रहे है, उसमें इतना मशगूल हुए जा रहे हैं कि जो दौड रहा है, उसकी ओर से आँखें मूंद ली है। ‘दौडने वाला कितना थक गया है, कितना परेशान हो उठा है इस गोल गोल घूमने की जिंदगी से! इस ओर हमारा कोई लक्ष्य ही नहीं है।
वह थक गया है पर हमें थकान का अनुभव नहीं है। थकान का अनुभव हो तो विश्राम की भूमिका बने! थकान का अनुभव हो तो पसीना पोंछने का भाव पैदा हो! थकान का अनुभव हो तो थकान मिटाने की व्यवस्था का लक्ष्य बने!
हाँ! हम घूम ही रहे हैं निरूद्देश्य! एक जन्म से दूसरे जन्म के लिये! हर जन्म में वही व्यवस्था! परिवार, सत्ता, धन, साधन, सुविधा! पहले बटोरना, बटोरने के लिये लडाई, माया, कपट! और फिर उसके संग्रह और विस्तार का लोभ! फिर उसके लिये मान, अहंकार का अनुभव!
हमारी जिंदगी यों गोल गोल घूमती जाती है। आँख बंद किये चलते जाते हैं इस अभीप्सा में कि मैं कितना आगे बढ गया हूँ! पर जब आँख खुलती है तो पता लगता है कि मैं वहीं था, जहाँ से चला था!
सारी दौड व्यर्थ हुई है। पसीना बहुत बहा, पर पहुँचे कहीं भी नहीं!
दौड लगे अपनी दिशा में तो एक ही दौड सारी दौडों का अन्त करने वाली हो जाय! मालिक को मालिक की ही दिशा में मालिक को पाने के लिये ही मालिक होकर ही दौडना है। यही दौड थकान मिटाती है।
                                                 
आपाधापी से सदा, बहुत बढा संसार।
दौड लगे निज आत्म की, तो हो निज उद्धार।।

11 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.

जिंदगी हम जीते जाते हैं, यह विचार किये बिना कि हमें क्या करना चाहिये.... क्या नहीं करना चाहिये...? करने या नहीं करने का निर्णय करने से पहले अपनी सोच का उस संदर्भ में विकास अत्यंत जरूरी होता है। उसके अभाव में हमारे निर्णय हमारे ही दर्द का कारण बन जाते हैं।
हम दूसरों के निर्णय से उतना दुखी नहीं होते, जितना अपने निर्णय से होते हैं।
क्योंकि दूसरों के निर्णय पर दर्द का अनुभव करते समय हमारे पास बचाव का एक लबादा भी होता है कि यह निर्णय मेरा नहीं है, उसका है... मैं क्या कर सकता था। दूसरों को दोषी ठहराकर अपने मन में संतोष का अनुभव किया जा सकता है।
पर खुद के निर्णय पर रोते समय कोई आँसू पौंछने वाला नहीं होता। क्योंकि दोष का टोपला किसी और पर ढोला नहीं जा सकता, जब निर्णय हमने ही किया होता है।
इसका मूल कारण हमारी जल्दबाजी होती है। क्षण भर का विचार हमारी समूचे भविष्य को प्रभावित कर सकते है। उसकी दिशा बदलने में निमित्त हो सकते हैं।
इसलिये करने से पहले रूकना जरूरी होता है। रूक कर... ठहर कर.. कुछ देर शांत चित्त से अतीत और भविष्य में छलांग लगा कर पहुँचना जरूरी होता है। अतीत से सीख लेनी होती है, और भविष्य में परिणति का पूर्वाभास करना होता है।
जब काल के उस खण्ड में पहुँच कर गवेषणा पूर्वक विश्लेषण होता है, तो निश्चित ही हमें ‘करने की दिशा मिल जाती है। तब करने का निर्णय भी सार्थक हो जाता है और न करने का निर्णय भी हमें उतना ही संतोष दे जाता है।
जिंदगी के इस निष्कर्ष को अपने रोम रोम में समेट लेना चाहिये कि निर्णय सदैव शांत क्षणों में हो, आवेश, आवेग या आक्रोश के भावों में नहीं!

मानवता के हेतु से, करो आत्म बलिदान।
मरना तो सबको मणि, ये मरना है महान्।।