एक प्रश्न मेरे सामने उपस्थित
हुआ है। हम वीतराग परमात्मा के स्तवन में उनकी स्तुति करते हुए उनके सामने ‘इच्छा पूर्ति’ की याचना करते हैं।
हे परमात्मन्! मेरी इच्छा पूर्ण
करो!
याचना के भावों में परमात्मा
का सामथ्य भी ‘इच्छा पूरक’ के रूप में व्यक्त होता है।
प्रश्न है- परमात्मा या कोई भी
क्या किसी की इच्छा पूर्ण कर सकते हैं?
क्योंकि इच्छाओं को तो कभी पूर्ण
किया ही नहीं जा सकता! क्योंकि इच्छाओं की आदि तो होती है, पर अन्त नहीं होता!
न इच्छाओं का कोई क्रम होता है...
न उनके स्वरूप में कोई स्थिरता होती है!
पूरी होते न होते नई इच्छा का
जन्म हो जाता है! यह क्रम नित्य निरंतर चलता ही जाता है।
तो फिर परमात्मा के लिये ‘वांछित
पूरक’ विशेषण
का प्रयोग किस अर्थ में है! परमात्मा की देशना तो इच्छाओं के विरोध में होती है। उत्तराध्ययन
सूत्र के आठवें अध्ययन के ‘छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं’ {इच्छाओं को रोकने से ही मोक्ष
मिलता है} इस सूत्र में परमात्मा महावीर इच्छाओं को रोकने... उनके निरोध पर जोर देते
हैं। फिर हम उन्हें ‘इच्छा पूरक’ कैसे और क्यों कहते है?
यहाँ पूरक या पूर्ति का अर्थ
समझना होगा। हकीकत में पूरक का अर्थ है- पूरा करने वाला! पूरा करना अर्थात् समाप्त
करना! किसी बात की समाप्ति पर हम कहते हैं- बात पूरी हो गई। उस बात का कोई अर्थ नहीं
रहा। अब कुछ नहीं बचा।
इच्छाओं को ‘पूर्ण’ करना ‘पूर्ण’ करना नहीं है। इच्छाओं को समाप्त
करना ‘पूर्ण करना’ है।
वीतराग परमात्मा इसी अर्थ में इच्छाओं को ‘पूर्ण’ करते हैं। एक बार पूर्ण होने के बाद दुबारा उसका प्रारंभ
नहीं होता। जो पुन: प्रारंभ हो जाय तो समझो अभी पूरी नहीं हुई। एक बार इच्छाऐं पूर्ण
हो जाती है, फिर दुबारा जन्म नहीं लेती... इसलिये इच्छाओं की पूर्ति के साथ संसार भी
समाप्त हो जाता है।
परमात्मा इच्छाओं का यथार्थ स्वरूप
हमें समझा देते हैं। जो इच्छाओं के स्वरूप को समझ लेता है, वह इच्छाओं से विरत हो जाता
है... वह इच्छाओं को पूर्ण कर लेता है।
थाह नहीं है चाह की, अन्तहीन
है काम।
चाह पूर्ण हो लगे तभी, जग पर
पूर्ण विराम।।