शनिवार, 21 जुलाई 2012

14 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


प्रवचन में ध्यान की चर्चा चल रही थी। जो परमात्मा का ध्यान करता है, वह तिर जाता है। प्रश्न उपस्थित हुआ- ध्यान क्या है?
इस जगत में ध्यान के प्रयोग बहुत चल रहे हैं। इसलिये मन का भ्रम में पडना आसान है। कोई कहता है- ऐसे बोलो तो ध्यान होगा। कोई कहता है- ऐसे बैठो तो ध्यान होगा! कोई कहता है- यह जाप करो तो ध्यान होगा।  कोई श्वास पर आधारित पद्धति बताता है तो कोई विशेष तस्वीर अपनी बंद आँखों में बिठाकर वहाँ मन रमाने को कहता है। सबके अपने तर्क है! सबकी अपनी श्रद्धा है! सबके अपने सिद्धांत है!
कुछ करना ध्यान है या कुछ नहीं करना ध्यान है?
इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिये हमें परमात्मा महावीर की देशना का रहस्य खोजना होगा। उनकी वाणी में ही इन प्रश्नों का समाधान प्राप्त होगा।
असल में सबसे बडी समस्या हमारा मन है! और सबसे बडा सहयोगी भी हमारा मन है। क्योंकि कुछ करना है, यह निर्णय भी हमारा मन करता है तो कुछ नहीं करना है, यह निर्णय भी करने वाला तो मन ही है।
फिर जहाँ मन है, वहाँ सतत विचार है। विचारों का प्रवाह तो रूक ही नहीं सकता।
हाँ! यह हो सकता है कि उसकी दिशा एक हो। विचारों का जो प्रवाह विभिन्न दिशाओं में बहता था, उसे अभ्यास पूर्वक एक दिशा में ही मोड दिया जाय! पर प्रवाह तो है। ठहरना तो मन का स्वभाव ही नहीं है।
मन के ठहरने की कल्पना की जा सकती है। इस विषय पर प्रवचन हो सकता है। समझाया जा सकता है, पर समझना बहुत मुश्किल है। यह क्रियान्वित नहीं हो सकता। क्योंकि मन का प्रवाह रूक नहीं सकता।
जब प्रवाह रूकेगा ही नहीं, तो ध्यान कैसे होगा?
कुछ क्षणों के लिये शांति पाना तो बहुत आसान है। शांत बैठे हैं तो शांति मिलेगी। पर वह तो क्षणिक ही होगी। ध्यान का परिणाम तो स्थायी होना चाहिये... क्षणिक नहीं।
असल में ध्यान का अर्थ निर्विचार दशा से नहीं है। क्योंकि यह संभव नहीं है।
परमात्मा महावीर ने कहा है- हमारा मन ही हमारा शत्रु है। और हमारा मन ही हमारा मित्र है। असल में मन में जो विचारों का प्रवाह गतिमान् है, उससे अपने आपको... अपने मन को... जोड देना, यह संसार है। और उन विचारों को साक्षीभाव से... बिना जुडे... मात्र देखना... सहजता से देखना...यही ध्यान है। देखने के लिये प्रयास भी नहीं चाहिये। नजर पड गई तो देख लिया! देख लिया तो मात्र देखा! उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं है। यही निर्विचार दशा है।
जिन विचारों में मैं नहीं होता हूँ, वही निर्विचार स्थिति है।
यही ध्यान की स्थिति है। इसी स्थिति में हम अपनी आत्मा के निकट पहुँचते हैं... और अथाह आनंद को प्राप्त करते हैं।

उससे जो मन जुड गया, हुआ जगत विस्तार।
साक्षीभाव जो हो गया, वही ध्यान निविचार।।