शनिवार, 21 जुलाई 2012

15 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


जो जुडता है, वह डूबता है। जुडने का अर्थ है- किसी से जुडना। उस किसी में व्यक्ति भी हो सकता है, पदार्थ भी, पुद्गल भी!
जुड़ना हमेशा पर से ही होता है। अपने से कोई नहीं जुड सकता। अपने से जुडने का कोई उपाय भी नहीं। क्योंकि मैं मुझे कैसे मिल सकता हूँ!
यदि मैं कहता हूँ कि मैं मुझसे मिला तो इससे तो यह सिद्ध होता है, मैं पहले मुझ में नहीं था। कोई भी नई घटना, पूर्व के नास्तित्व को सिद्ध करती है।
आज ऐसा हुआ है, इसका अर्थ हुआ कि पहले वैसा नहीं था।
आज मैं अपने से जुडा तो इसका अर्थ हुआ कि पहले मैं अपने से अलग था।
अपने से अलग होने का तो कोई उपाय ही नहीं है।
अपने को तो मात्र जानना होता है... मात्र अनुभव करना होता है।
हम जो जीवन जी रहे हैं, इसमें हम होने पर भी नहीं जानते! मैं अपने पास हूँ फिर भी नहीं जानता हूँ!
अनंतकाल की यात्रा में सदा सदा मैं पर से जुडता आया हूँ! जीने में और जुडकर जीने में अन्तर है। चिपकना नहीं है।
दर्पण की तरह जीवन जीना होता है। उसके सामने से हजारों अच्छे बुरे लोग, पदार्थ सब निकलते हैं। उसमें नजर भी आते हैं। पर वह कोरा का कोरा रहता है। एक पदार्थ को भी अपने में नहीं बसाता।
गुरू ने शिष्यों को प्रात:कालीन प्रार्थना के पश्चात् उपदेश देते हुए कहा- तुम जब भी नदी में उतरो, तब एक बात का ख्याल रखना कि पानी का स्पर्श नहीं होना चाहिये।
शिष्यों ने सोचा- ऐसा कैसे हो सकता है। नदी पार करनी है चलकर तो पानी का स्पर्श तो करना ही होगा। उन्हें लगा- गुरू महाराज बडे सिद्ध साधक प्रतीत होते हैं। वे जब भी नदी पार करते होंगे, पानी के उतर हवा में तैरकर उडकर पार करते होंगे।
दूसरे दिन गुरू महाराज को उस पार जाना था तो नदी में उतरना पडा। शिष्यों को यह देख कर बडी हैरानी हुई कि गुरू महाराज हवा में नहीं तैर रहे हैं बल्कि पानी में उतर कर उस पार जा रहे हैं।
पास से देखा तो पाया कि उनके वस्त्र, उनके अंग सब गीले हो चुके हैं।
शिष्यों ने समाधान पाने की अपेक्षा से गुरू से पूछा- भगवन्! आप तो हमें पानी का स्पर्श न करने का उपदेश दे रहे थे, जबकि स्पर्श तो आपने भी किया है।
गुरू ने कहा- भैया! मैं कहाँ पानी का स्पर्श कर रहा था। स्पर्श तो मैं आत्मा का ही कर रहा था। पानी मुझे स्पर्श कर रहा था। मैं पानी को स्पर्श नहीं कर रहा था।
इस असंग भाव का अर्थ है- जीना है, पर जुडना नहीं है! यही संवर है, यही निर्जरा का कारण है। 

15 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.