24. नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
दृश्य तो जैसा है, वैसा ही रहता
है। दृश्य नहीं बदला करता। दृष्टि को बदलना होता है! हमें बदलना होता है।
और हमारी मुसीबत यह है कि हम
सदैव दृश्य बदलने की ही कामना करते हैं, हमारा पुरूषार्थ भी दृश्य बदलने के लिये होता
है।
यदि मैं न बदला तो दृश्य बदल
भी जायेगा तो क्या हो जायेगा?
क्योंकि दृश्य वैसा दिखाई नहीं
देता, जैसा वह होता है। बल्कि दृश्य वैसा दिखाई देता है, जैसे हम होते हैं। हम अपनी
आँखों पर चढे चश्मे के रंग को दृश्य पर स्थापित करते हैं। संसार हमारी ही दृष्टि का
हस्ताक्षर है।
सूखी घास को खाने से इंकार करने
वाले घोडे की आँखों पर जब गहरे हरे रंग का चश्मा बिठा दिया जाता है तो, वह उसी सूखी
घास को हरी मान कर बडे चाव और स्वाद से खा जाता है। यह दृष्टिकोण का अन्तर है।
उसी संसार में ज्ञानी भी रहता
है और उसी संसार में अज्ञानी भी रहता है। दृश्य वही है, लोग वही है, सृष्टि वही है,
पेड पौधे वही है, घटनाऐं वही है, शब्द वही है, प्रेम मोह का जाल वही है! सब कुछ एक
सा है। अन्तर दृष्टिकोण का है।
ज्ञानी उसी दृश्य से अनासक्ति
का विकास करता है और अज्ञानी उसी दृश्य से आसक्ति का विस्तार करता है।
अध्यात्मोपनिषद् प्रकरणम् का
यह श्लोक यही घोषणा करता है-
संसारे निवसन् स्वार्थसज्ज: कज्जलवेश्मनि।
लिप्यते निखिलो लोको, ज्ञानसिद्धो
न लिप्यते।।35।।
काजल का घर है। जो भी छुएगा,
काला हो जायेगा। पर हर व्यक्ति नहीं है। जो अज्ञानी है, वही उससे लिप्त होगा। जो ज्ञानी
है, ज्ञानसिद्ध है, वह लिप्त नहीं होता।
यह संसार काजल का ही घर है, पर
उसके लिये जो लिप्त है, जो आसक्त है, जिसकी आँखों पर पट्टी चढी है।
उसके लिये मुक्ति का मंगल द्वार
है, जो निर्लिप्त है, जो अनासक्त है, जिसने दृश्य की यथार्थता को समझकर अपनी दृष्टि
यथार्थ बनाली है।
अपने दृष्टिकोण को बदलना ही अंधेरे
से उजाले की ओर गति करना है।