नवप्रभात
- पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.
कर्म के आगे व्यक्ति बिचारा है। वह कितना भी बुद्धिमान हो... शक्तिमान हो... चतुर हो... पर कर्मसत्ता के आगे सर्वथा कमजोर है।
होशियार से होशियार व्यक्ति भी धोखा खा जाता है। वह भी वैसा कर बैठता है, जैसा कर्म उससे करवाता है। सच्चाई यह है कि व्यक्ति कर्म के हाथों की कठपुतली है। वह भले ऐसा विचार करे कि यह मैं कर रहा हूँ! व्यक्ति भले कत्र्ता-भाव में जीये, पर हकीकत में वह कर्म के नचाये नाच रहा है। अच्छा भी.. बुरा भी.. कर्म सत्ता ही उससे सब कुछ करवा रही है।
कर्म के स्वरूप को यथार्थ रूप से समझ कर अपने चिंतन को बदलना है। जो व्यक्ति कर्म सिद्धान्त की इस यथार्थ व्याख्या को समझ लेता है, वह व्यक्ति कभी भी किसी को दोषी नहीं मानता। वह केवल और केवल कर्म को दोषी मानता है।
इसलिये वह व्यक्ति उस व्यक्ति से लडाई नहीं करता.. वह कर्म से युद्ध करने का पुरूषार्थ करता है।
एक अखबार हमेशा शराब के विरोध में लेख प्रकाशित करता था। उसका मुख्य संपादक अपनी आँफिस में अकेला था। वह किसी काम से बाहर जाने के लिये अपनी कुर्सी से खडा हुआ ही था कि एक शराबी आगबबूला होता हुआ अन्दर आया। गालियाँ बरसाता हुआ जोर से चिल्लाया- कहाँ है संपादक!
उसकी आवाज और आक्रोश देख कर संपादक ने कहा- भैया! बैठो! अभी उसे बुलाकर लाता हूँ। यह कहकर वह बाहर गया। वह इस आदमी से बचने के बारे में सोच ही रहा था कि एक शराबी और बाहर से भीतर की ओर आता हुआ उससे टकरा गया। वह भी उसी आवाज में बोला- है कौन इसका संपादक! जो शराब के बारे में ऐसा वैसा लिखता है।
वह धीरे से बोला- अन्दर बैठा है।
अन्दर जो ही दोनों आपस में गुत्थमगुत्था हो गये। दोनों एक दूसरे को संपादक समझ रहे थे। दोनों आपस में एक दूसरे को सजा देकर आनंद का अनुभव कर रहे थे। जबकि संपादक दूर खडा तमाशा देख रहा था।
कर्म उस संपादक की भांति है। जो लडा कर तमाशा देखता है। हमारा असली अपराधी कोई व्यक्ति या परिस्थिति नहीं, कर्मसत्ता है। उस पर विजय प्राप्त करने का पुरूषार्थ करना है। यही धर्म है।