रविवार, 10 मई 2015

नवप्रभात लेखक- पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म.... अपना मन मित्र बना कि सारी दुनिया अपनी हो जाती है। फिर परायेपन के लिये कोई अवकाश नहीं रह पाता।

चन्द्रप्रभ परमात्मा का स्तवन गा रहा था। आनंदघनजी म. ने इस स्तवन में परमात्मा के प्रति अपनी श्रद्धा का सागर उंडेल दिया है।परमात्मा क्या मिले... जीवन का लक्ष्य मिल गया! जैसे किसी प्यासे को पानी मिला!जैसे किसी अंधे को आंख मिली! जैसे किसी मूरत में प्राण आ गये!अपने इन्हीं अहोभावों की अभिव्यक्ति उन्होंने स्तवन की आंकडी में की है।आंकडी है-सखि मने देखण दे, चन्द्रप्रभु मुख चन्द, सखि मने देखण दे!इस आंकडी में स्तवन का पूरा निचोड आ गया है। इस मुखडे का अर्थ हृदय में उतर जाये और यह अर्थ मेरा अपना हो जाये... यह अर्थ मेरे रोम रोम से आने लग जाये... तो समझना साधना पूर्णता को प्राप्त हुई।कौन आनंदघन को रोक रहा है... जो वे कहते हैं- मुझे देखने दे... मुझे दर्शन करने दे...!कोई तो है जो बाधा बना है। कोई तो है जो उन्हें रोक रहा है! कौन हो सकता है वो!हाँ! मन है जो उन्हें रोक रहा है।तो फिर प्रश्न होगा- दर्शन करने वाला कौन है! दर्शन करने को उत्सुक कौन है!तो उत्तर होगा- मन है जो परमात्मा को देखना चाहता है।ओह! मैं तो मन को समझ ही नहीं पा रहा हूँ। रोकने वाला भी मन... चाहने वाला भी मन... । तो एक ही मन डबल रोल कैसे कर रहा है!बिल्कुल ठीक कहा- मन डबल रोल कर रहा है। हर व्यक्ति का मन करता है। मन की इस लीला को समझने के लिये मन का विभाजन करना होगा। यों तो मन के लाखों प्रकार है। पर संक्षेप में समझना हो तो हमें मन के दो भेद करने होंगे। एक अच्छा मन, दूसरा बुरा मन! अच्छे और बुरे की व्याख्या में समस्त प्रकार के मन आ गये।आनंदघन योगी का अच्छा मन अपने बुरे मन से कहता है। डांट कर नहीं, बल्कि प्रेम से! उसे सखा... दोस्त बना कर! क्योंकि दोस्त बनाये बिना वह आपका काम नहीं कर सकता। और उन्हें अपना काम करना है। परमात्मा से मिलना है पर क्या करें, वह बुरा मन बार बार बीच में आकर... नये नये प्रस्ताव रख कर बाधा बन जाता है। इस लिये उसे मना कर परमात्मा से मिलना चाहते हैं। अपने मन को मित्र बना कर ही उससे काम लिया जा सकता है। अपना मन मित्र बना कि सारी दुनिया अपनी हो जाती है। फिर परायेपन के लिये कोई अवकाश नहीं रह पाता।