बुधवार, 19 अगस्त 2015

Navprabhat देवगण तो परेशानियां दूर करते हैं। जबकि माता अंबिका ने तो उसे दर दर घूमने के लिये मजबूर कर दिया।

नवप्रभात
चिंतक - पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर जी .सा.

प्रतिदिन प्रतिक्रमण के बाद में परम्परा से दासानुदासा इव सर्वदेवा: के उच्चारण से दादा गुरूदेव की स्तुति की जाती है।
यह स्तुति किसी विद्वान् पंडित या किसी समर्पित शिष्य की रचना नहीं है।
यह रचना है माता अंबिका की! नागदेव के अन्तर की जिज्ञासा उसे माता अंबिका के चरणों में ले आई थी। वह जिज्ञासु था युगप्रधान के बोध का!
वह पिपासु था युगप्रधान के दर्शन का!
वह इच्छुक था युगप्रधान के चरणों में आलोटने का!
पर जब उसकी तप साधना पूर्ण हुई तो माता अंबिका ने सीधे सीधे उसके सवाल का जवाब नहीं दिया! ऐसा क्यों! इस प्रश्न पर मेरा मन बहुत अटका है। समाधान नहीं मिला।
देवगण तो परेशानियां दूर करते हैं। जबकि माता अंबिका ने तो उसे दर दर घूमने के लिये मजबूर कर दिया।
सीधे सीधे युगप्रधान का नाम बता देते तो क्या समस्या होती! तो कम से कम वह सीधे सीधे आचार्य जिनदत्तसूरि के पास चला जाता और अपने अधूरे और प्यासे मन को पूर्ण और तृप्त कर देता।
ओह! अचानक आज कारण समझ में आया।
माता अंबिका सीधे सीधे नाम बता देती। तो नागदेव के पास उसका प्रमाण क्या होता! उसकी सत्य घोषणा पर भी प्रश्न चिह्न उपस्थित होने की संभावना बन जाती।
इसलिये नाम सीधे सीधे नहीं बता कर गुप्त लिपि में लिखा। क्योंकि माता जानती थी कि मेरी इस लिपि को वही पढ सकता है, जो अतिविशिष्ट एवं परम साधना से संपन्न हो। और उस समय दादा गुरूदेव आचार्य जिनदत्तसूरि के अतिरिक्त और कोई ऐसा साधक था नहीं।
और यदि किसी दूसरे साधना संपन्न साधु ने पढ भी लिया तो क्या! नाम तो मैंने वही लिखा है, जो युगप्रधान है।
इसलिये माता ने यह नहीं कहा कि जो इसे पढ लेगा, वह युगप्रधान होगा। बल्कि यह कहा कि मैंने युगप्रधान का नाम इसमें लिख दिया है..। जाओ और पढवा लो। मैं जानती हूँ कि इसे पढने में या इसे पढने हेतु सुगम बनाने में वे ही महापुरूष सक्षम है, जो युगप्रधान है।
रहस्य-बोध प्राप्त कर मन अत्यन्त प्रसन्न हो गया।