हमें समझ ही
नहीं आता
और जिंदगी
पूरी हो
जाती है।
जिंदगी का
अर्थ समझ
में आने
से पहले
ही हमारी
अर्थी निकल
जाती है।
बचपन हमारा खेलों
में बीतता
है, यह
बात समझ
में आती
है। क्योंकि
उस उम्र
में और
उन परिस्थितियों
में सद्गुणों
की बात
करना, संभव
नहीं होता।
कोई पूर्व
जन्म के
क्षयोपशम के
परिणाम स्वरूप
बचपन में
भी संतत्व
का परिवेश
अभिव्यक्त होता हो तो ऐसा
बिरला ही
हो पाता
है। सामान्य
स्थिति में
बचपन से
और कोई
अपेक्षा नहीं
हो सकती।
जीवन तो युवावस्था
का ही
है। जिसने
युवावस्था को समझ लिया, उसने
अपने बुढापे
को भी
समझ लिया।
वृद्ध अवस्था
तो युवावस्था
की छाया
मात्र है।
युवावस्था एक चौराहा
है। जहाँ
ढलान भी
है, चढाई
भी है!
दांये मोड
भी है
और बांये
मोड भी
है। रास्ता
आगे को
भी जाता
है, और
पीछे को
भी जाता
है।
जिधर जाना हो,
निर्णय किया
जा सकता
है। निर्णय
करने के
लिये दृष्टि
है! चारों
ओर देखने
के लिये
गर्दन घुमायी
जा सकती
है।
ढलान का निर्णय
आसान है।
ढुलना और
भी आसान
है। पर
खतरा उसी
में है।
ढलान के
निर्णय पर
तो हमारा
अधिकार था।
पर समस्या
तब प्रारंभ
होती है,
जब हम
इस निर्णय
को क्रियान्वित
करना प्रारंभ
करते हैं,
तब उस
पर हमारा
कोई अधिकार
नहीं होता।
जब इसके
परिणाम और
उससे उपजी
पीडा समझ
में आती
है, तब
हमारे पास
चीखों के
अलावा और
कुछ शेष
नहीं रहता।
चढाई का निर्णय
करने में
पसीना आता
है। चढने
में और
ज्यादा पसीना
आता है।
पर आनंद
इस बात
का होता
है कि
सदा सर्वदा
मैं अपने
पास होता
हूँ! मेरे
निर्णय पर
मेरा अधिकार
होता है।
निर्णय के
परिणामों पर
भी मेरा
अधिकार होता
है।
मुझे ऊँचा उठना
है। नीचे
नहीं गिरना
है। यह
संकल्प राह
का निर्णय
करने से
पूर्व कर
लेना जरूरी
है।
जग में कोई
न शत्रु
है, है
ना कोई
मित्र।
तुम ही शत्रु
मीत भी,
तुम्हीं तुम्हारा
चित्र।।