गुरुवार, 19 जुलाई 2012

1 नवप्रभात


                            1  नवप्रभात       

सुख दुख की हमारी व्याख्या बडी अजीब है। कभी किसी वस्तु के पाने में सुख का अनुभव होता है, तो कभी किसी वस्तु के खोने में सुख की कल्पना होती है।
और कभी कभी तो जिस वस्तु के संयोग में सुख का अनुभव होता है, कुछ काल के अतिक्रमण के पश्चात् उसी वस्तु का संयोग दुख देने लगता है। यह स्थिति केवल वस्तु के बारे में होती है, वरन् व्यक्ति के बारे में भी कभी कभी इसी प्रकार के अनुभवों से हम गुजरते हैं।
जिस वस्तु में हमने सुख माना है... या जिस स्थिति में हमने सुख माना है.... उस स्थिति का निर्माण जो व्यक्ति करता है, उसे हम अपना मित्र भी मानते हैं और उपकारी भी!
जिस वस्तु या स्थिति में हमने दुख माना है... वैसी स्थिति पैदा करने वाला हमारी भाषा और विचार धारा के अनुसार शत्रु बन जाता है।
वस्तु, पुद्गल, संयोग, वियोग, स्थिति, परिस्थिति आदि के आधार पर सुख देने वाला तो उपकारी है ही, दुख देने वाला भी उपकारी है... बल्कि कहना चाहिये कि वह उपकारी नहीं वरन् महा उपकारी है।
क्योंकि वह जो दुख दे रहा है, वहवहनहीं दे रहा है... मैं ही दे रहा हूँ। वह तो उसमें निमित्त बन रहा है। वह मेरे ही पाप का उदय है। वह तो कर्जा ले रहा है। कर्जा चुकाने में मेरी सहायता कर रहा है।
पूर्व भवों में मैंने दुख देकर कर्जा लिया था। आज चुक रहा है। मैं कर्ज रहित हो रहा हूँ। यह अपने आप में आनन्दित करने वाला तत्व है।
अच्छा हुआ... जो कर्जा लेने इस समय आया। इस समय मैं सक्षम हूँ किसी और समय आता तो हो सकता है कि मैं कर्जा चुकाने की स्थिति में नहीं होता।
आज मैं परमात्मा महावीर के शासन, शब्द और भाव से अनुप्राणित हूँ। परमात्मा की शक्ति ने मुझे कर्जा चुकाने योग्य बनाया है... तो मैं आनंद से चुका रहा हूँ। कर्जा चुकने में सहायता करने वाले के प्रति कृतज्ञता का भाव है।
यह सत्य समझ में आने के बाद जीवन में कषाय नहीं रहता। सुख देने वाला उपकारी है और दुख देने वाला महा उपकारी!


-उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.