2 नवप्रभात
--उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.
घटनाओं से भरा
हमारा जीवन
है। कभी
हमें मान
मिलता है...
कभी हम
अपमानित होने
का अनुभव
करते हैं।
कभी परायों
से अपनेपन
का अहसास
होता है...
कभी अपनों
से परायेपन
का अनुभव
होता है।
परायेपन का अनुभव
हमें जितना
आनन्द देता
है, उससे
कई गुणा
दर्द अपनों
का परायापन
दे जाता
है। इसके
मूल में
हमारी आकांक्षा
छिपी है।
हमने अपनों
से सदैव
आत्मीयता चाही
है। यह
आकांक्षा ही
उस दु:ख का कारण है।
परमात्मा महावीर की
वाणी कहती
है- न
कोई अपना
है... न
कोई पराया...!
यह सब
व्यवहार जगत
का खेल
है।
कोई भी पराया
इसलिये नहीं
है.. क्योंकि
हर जीव
किसी न
किसी भव
में... किसी
न किसी
जाति में...
किसी न
किसी पर्याय
में हमारा
कोई न
कोई संबंधी
रह चुका
है। किसी
भव में
कोई माता
बना.. तो
किसी भव
में कोई
पिता बना...!
किसी भव
में कोई
भाई बना
तो किसी
भव में
कोई बहिन
बन कर
संबंधी बना!
इसलिये हर जीव
अपना है।
कोई जीव
पराया नहीं
है! आज
भले वह
किसी भी
आकार में
हो...!
चींटी भी हमारी
संबंधी रह
चुकी है
और हाथी
भी! तो
पराया किसे
कहेंगे? हर
जीव अपना
है... हमारा
है।
और सच तो
यह है
कि कोई
भी जीव
अपना नहीं
है क्योंकि
अपनत्व की
व्याख्या लागू
वहीं होती
है, जहाँ
जरा भी
परायापन नहीं
होता! किसी
भी समय
नहीं होता!
जबकि जो जीव
कभी अपना
था... आज
पराया बना
है। अपना
होकर समय
कम बीता
है.. पराया
होकर समय
ज्यादा बीता
है। तो
फिर उसे
अपना कैसे
कहेंगे?
सच तो यह
है कि
न कोई
अपना है..
न कोई
पराया है।
हर जीव
अपने आप
में पूर्ण
स्वतंत्र द्रव्य
है।
यह सत्य समझ
में आने
के बाद
न तो
अपनापन पाकर
फूलते है...
न परायापन
पाकर दर्द
का अनुभव
करते हैं।
क्योंकि हर्ष
और दु:ख दोनों
अनुभव हमारी
अज्ञानता का
बोधक है।
दोनों का
कारण संसार
है... पुद्गल
है।
पुद्गलानंदी ही अपनेपन
में हर्ष
और परायेपन
में दु:ख का अनुभव करता
है। आत्मानंदी
तो अपने
में जीता
है। उसके
लिये स्व
ही अपना
है... उसके
लिये जीना
ही अपनापन
है...!