शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

3 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


दीपावली आई है हमारे जीवन में उजाला लेकर अंधकार भगाने! बाहर का भी अंधकार भगाना है और अन्तर का भी! यदि अन्तर में अंधकार है तो बाहर के उजाले का कोई मूल्य नहीं है। और यदि अन्तर में उजाला है तो बाहर के अंधकार की कोई पीडा नहीं!
उजाला अन्तर में चाहिये! वह उजाला है समता का, चिन्तन का, विवेक का!
यह पर्व परमात्मा महावीर के निर्वाण से जुडा है। परमात्मा ने दीपावली की रात्रि अर्थात् कार्तिक वदि अमावस्या को रात्रि के अन्तिम प्रहर में निर्वाण प्राप्त किया था। भाव दीप बुझ गया... अंधेरा छा गया... देवों का आना.. उनके आने से प्रकाश हुआ! उसी की स्मृति में दीपावली पर्व का जन्म हुआ। घर की दहलीज पर सजी हुई दीप पंक्तियाँ हृदय को प्रसन्नता से भर देती है।दीप एक प्रतीक है। दीप जला कर संकल्प लिया जाता है कि मैं अपने घर में उजाला करूँगा ही करूँगा पर औरों के घरों में भी उजाला करूँगा।हम परमात्मा महावीर के अनुयायी है। हमारा संकल्प यह तो होना ही चाहिये कि हममें दूसरों के घरों में उजाला करने का सामर्थ्य नहीं हो तो चिन्ता नहीं है पर उनके घरों में अंधेरा करने का हमें कोई अधिकार नहीं है।हमारे अन्तर में उजाला कोई और करेगा। किसी और में कोई सामर्थ्य ही नहीं है। हमें अपना दीया खुद ही बनना होता है। तीर्थंकर परमात्मा जैसे विराट् व्यक्तित्व भी प्रेरणा दे सकते हैं... उपदेश दे सकते हैं... रास्ता बता सकते हैं... पर किसी को भी उसकी बिना रूचि के राही नहीं बना सकते। ऐसे ही जैसे कोई गडरिया पशुओं को डंडे से हांक कर या पुचकार कर पानी के स्थान तक पहुँचा सकता है... पर एक पशु को भी पानी पिलाने में सक्षम नहीं हो सकता। पानी तो उन्हें खुद को ही पीना पडेगा।परमात्मा की यही कृपा कितनी है कि हमारे सामने रास्ता उन्होंने बिछा दिया है। अब भटकने की जरूरत नहीं है। कहीं अटकने की जरूरत नहीं है। अब तो चलना है। दीपावली पर्व का अर्थ चलना है। बिना रूके चलना है।हमारा चलना ही निर्णय करेगा कि हम उजाले के राही हैं या अंधेरे के!
दीपावली पर्व हमारे जीवन में उजाला भरे... वर्ष भर के लिये... जीवन भर के लिये...!