शरीर का जीवन
लम्बा नहीं
है क्योंकि
सीमा है।
जिसकी सीमा
है, वह
कभी भी
अधिक नहीं
हो सकता।
शरीर को
एक दिन
विदा होना
ही होता
है। बल्कि
कहना यह
चाहिये कि
वह प्रतिक्षण
हमसे विदा
हो रहा
है। बीतते
हर क्षण
के साथ
हमारा अतीत
लम्बा और
भविष्य छोटा
होता जाता
है। चाबी
भरी नहीं
कि खुलनी
शुरू हो
जाती है...
वैसे ही
जीवन का
प्रारंभ हुआ
नहीं कि
मौत शुरू
हो जाती
है।
शरीर के जीवन
को लम्बा
करने का
कोई उपाय
नहीं है।
आयुष्य कर्म
का काल
जितना है,
उतना ही
जीना है।
न एक
पल घटाया
जा सकता
है... न
एक पल
बढाया जा
सकता है।
क्योंकि यह
हमारे हाथ
में नहीं
है। ज्यादा
जीने का
विचार करना
हमारे हाथ
में है....
पर उसकी क्रियान्विति हमारे हाथ में नहीं
है।
जीना तो हमें
उतना ही
है।
हांलाकि ज़िंदग़ी की
अधिकता या
उसकी अल्पता
पर हमारे
विचार निरंतर
बदलते रहते
हैं।
सुख भरा जीवन
छोटा लगता
है जबकि
दु:ख
के दिन
काटे नहीं
कटते।
सुख में जीवन
लम्बा चाहते
हैं जबकि
दु:ख
आने पर
जिन्दगी को
छोटा करने
की इच्छा
होती है।
हांलाकि सोचने से
कुछ होता
नहीं है...
हो सकता
भी नहीं
है.... वैसा
होने का
कोई उपाय
नहीं है।
परन्तु सुख दु:ख के अनुभव के
आधार पर
हमारे विचारों
में निरंतर
उपद्रव जारी
रहता है।
परमात्मा महावीर ने
उत्तराध्ययन सूत्र में जीवन के
आनन्द को
लगातार पीने
के लिये
सूत्र दिया
है-
जितना जियो... समझ
पूर्वक जीयो!
समझ तुम्हें
जीवन की
अमरता देगी।
जीवन परिस्थितियों
के आधार
पर नहीं
जीना! बाह्य
परिस्थितियाँ मात्र बाह्य व्यवहार के
लिये हैं!
उसे अन्तर
के आनन्द
का चौकीदार
नहीं बनाना
है। जिस
रोज परिस्थितियाँ
हमारे भावों
की मालिक
हो जायेगी....
हमारा सुख
चैन छिन
जायेगा!
क्योंकि परिस्थिति कभी
भी सुख
की नहीं
होती! और
हमारा मन
कभी भी
वर्तमान से
संतुष्ट नहीं
होता। वह
सदा वहाँ
देखता है,
जो अपने
पास नहीं
होता! आज
जो नहीं
है, उसे
कल पा
लेने पर
नजरें और
ज्यादा आगे
बढ जायेगी...
तब हमारे
हाथ में
दुख ही
रहेगा।
सुख का क्षण
सदैव छोटा
होता है।
इसलिये जीवन समझ
पूर्वक जीना
है। सदा
सुख में
जीना है।
आत्मा का अनुभव
होने से,
समझ बदल
जाती है।
बुद्धि फिर झूठी
माया में,
उलझ नहीं
पाती है।।