शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

5 नवप्रभात --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.


ज्ञान हमारी आत्मा का स्वभाव है। और स्वभाव को कभी भी अलग नहीं किया जा सकता। अलग हो ही नहीं सकता। उस पर पर्दा सकता है। वह आवरण के तले कुछ समय के लिये बदल सकता है।
कुछ समय का अर्थ है- जिस समय की सीमा है, वह कुछ कहलाता है। आखिर उस आवरण को हटना ही होता है। जिसे हटना है, वह स्थायी नहीं हो सकता।
जो जिसका स्वभाव होता है, वह तो दिया जाता है, लिया जाता है। इसलिये ज्ञान दिया नहीं जाता। ज्ञान लिया भी नहीं जाता। ज्ञान को पाया भी नहीं जाता। जो पाया जाता है वह असली ज्ञान नहीं हो सकता। वह उसकी सूचना हो सकती है, वह उसकी व्याख्या हो सकती है। पर वह ज्ञान नहीं हो सकता।
तीर्थंकर परमात्मा कभी भी ज्ञान पाने का प्रयास नहीं करते! वे ज्ञान पर आये कर्मों के आवरण को दूर करने का प्रयास करते हैं। इसलिये ज्ञान प्रकट होता है। प्रकट होने का अर्थ है- था तो पास ही! पर तिरोहित था। दिख नहीं रहा था। हमारी आँखों के सामने दीवार थी। दीवार के पार ज्ञान का उजाला नजर नहीं रहा था। दीवार टूट कर बिखर गई कि उजाला हमारी आँखों में भर गया।
जो है ही हमारे पास! जो था ही हमारे पास! जो रहेगा ही हमारे पास! उसे पायेंगे कैसे! क्योंकि हमने उसे आज तक खोया ही नहीं है।
वह हमारी नजरों से चूक सकता है। उसे हम भूल सकते हैं। पर उसका अभाव कभी नहीं हुआ।
और ज्ञान कोई अलग तत्त्व भी नहीं है। अपना ज्ञान अपने अनुभव का विषय बने, यही तो ज्ञान है।
जो पाया जाता है, वह ज्ञान हमारा नहीं है। संसार का ज्ञान पाया जाता है। और जो पाया जाता है, वह मिटेगा भी! वह स्थायी हो ही नहीं सकता। जो अनावृत्त होता है, वह स्थायी है। फिर मिट नहीं सकता। यह पडदा एक बार ही गिरता है। फिर बाद में पुन: पडदा लगाने का कोई उपाय नहीं है।
अज्ञान का पडदा एक बार मिटने के बाद दूसरी बार पुन: नहीं चढता। चढ ही नहीं सकता।
एक बार ज्ञान का आलोक बिखरने के बाद फिर अज्ञान अवस्था नहीं आती। हाँ जब तक पूरी तरह पडदा नहीं मिटता तब तक पडदे की तहों में अल्पता या अधिकता आती रहती है।
इसलिये तो हर जन्म में बारहखडी सीखनी पडती है। आत्मा का ज्ञान आत्मा के भीतर ही मौजूद है। जीवन का पुरूषार्थ अज्ञान मिटाने के लिये होना है। अज्ञान मिटेगा कि ज्ञान प्रकट होगा।
इसलिये मिटाना है पर निर्माण कुछ भी नहीं करना है। निर्माण तो पहले से ही मौजूद है।
परमात्मा महावीर का यह वचन हमें सीधी सीख देता है-
                                                जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसं कडं।
                                                तया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छइ।।
                                                                                                                                -दशवैकालिक सूत्र
- जब साधक अज्ञान कर्ममल को दूर कर लेता है तो वह सर्वत्रगामी केवलज्ञान केवलदर्शन को पा लेता है।
मुख्य बात अज्ञान को दूर करने की है। अज्ञान दूर करना, पुरूषार्थ है, और ज्ञान का प्रकटीकरण उसका परिणाम!
इसे समझकर अपने जीवन की दिशा बदलें।

समता सदा रहे मानस में, कषाय मुक्त हो जीवन।
हो निज में निजता का अनुभव, जीवन उसका धन धन।।