परमात्मा महावीर ने
आत्मा की
तीन स्थितियों
की व्याख्या
की है।
बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा! सरल
शब्दों में
इसे समझना
चाहे तो
इसे यों
परिभाषित करना
होगा।
बहिरात्मा पदार्थ है,
शरीर है,
चेतन के
भोगे हुए
पुद्गल है।
अन्तरात्मा वह है
जो क्षमता
से परिपूर्ण
है।
परमात्मा का अर्थ
है- संपूर्ण
विकसित आत्मा!
जिसने आत्मा
को आत्मा
के रूप
में जान
लिया है।
मात्र होना अर्थात्
अस्तित्व ही
पर्याप्त नहीं
होता। क्योंकि
अस्तित्व तो
जड का
भी है
और चेतन
का भी
है!
अस्तित्व होने से
उसे अस्तित्व
का अनुभव
हो ही,
यह जरूरी
नहीं होता।
हीरे को कभी
भी अपनी
चमक का
अहसास नहीं
हो सकता।
आत्मा के
अनुभव की
क्षमता तो
अन्तरात्मा में ही होती है।
बहिरात्मा के साथ
जुडी आत्मा
अन्तरात्मा तो है, पर अनुभव
नहीं है
अपना कि
मैं कौन
हूँ, क्या
हूँ... वह
जीता है
परिस्थितियों में, वह जीता है
पुद्गलों में
और उसी
की चिन्ताओं
में!
उसके सामने सपने
होते हैं,
यथार्थ नहीं
होता!
उसके सामने भविष्य
की आशाऐं
होती है,
वर्तमान का
जीवंत अनुभव
नहीं होता!
उसके सामने कल्पनाओं
की भ्रमणा
होती है,
सत्य नहीं
होता!
वह आकाश में
उडता है,
धरती की
ओर निगाहें
नहीं होती!
हांलाकि कैसे जीना
है, यह
उसके हाथ
में होता
है। वह
जी सकता
है बहिरात्मा
में, वह
जी सकता
है परमात्मा
में! वह
बिल्कुल मध्य
में स्थित
है। उसकी
दृष्टि ही
तय करती
है कि
वह जाना
कहाँ चाहता
है?
उसकी रूचि ही
यह तय
करती है
कि वह
होना क्या
चाहता है?
वह जीता है
बहिरात्मा के साथ तो अपनी
अधोगति का
परिणाम पाता
है।
वह जीता है
परमात्मा के
साथ तो
अपने आपको
परमात्मा बना
देता है।
इसी जीवन में
हमें अपने
भविष्य का
तानाबाना बुन
लेना है।
परमात्मा के साथ
जीना है!
अपने साथ
जीना है!
अपने में
जीना है!
परमात्मा होने
के लिये
जीना है!
जो हूँ,
वह होने
के लिये
जीना है!
यही धर्म
है! यही
मोक्ष है!
यही मोक्ष
मार्ग है।
आत्म प्राप्ति ही
लक्ष्य है,
करो लक्ष्य
संधान।
जन से जैनी
फिर बनो,
वीतराग भगवान्।।