बुधवार, 19 अगस्त 2015

NAVPRABHAT प्यास का प्यास के रूप में अनुभव होते ही प्यास बुझ जाती है। और गहराई से सोचेंगे तो पायेंगे कि मैं प्यासा हूँ ही नहीं।

नवप्रभात
चिंतक - पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर जी म.सा.
हम सभी एक प्यास लिये जी रहे हैं। हर आदमी प्यासा है... इसी लिये दौड रहा है तृप्ति के लिये।
पर तृप्ति हो नहीं पाती। प्यास बुझ नहीं पाती।
जहाँ वह सोचता है कि मेरी प्यास यहाँ बुझेगी।
पास जाकर... उसे पाकर पाता है कि मेरी प्यास बुझी नहीं, बल्कि और ज्यादा भडक उठी है। मैं अपने आप को वहीं का वहीं खडा पाता हूँ।
क्या कारण है कि प्यास बुझ नहीं रही है।
कहीं कोई समस्या तो है?
या तो प्यास झूठी है। या प्यास बुझाने का आधार झूठा है।
सच तो यह है कि हमने कभी अपनी प्यास का विश्लेषण किया नहीं है।
और न ही उस प्यास को बुझाने में समर्थ ऐसे अमृत का विश्लेषण किया है।
हम अपनी प्यास को संसार की सामग्री से जोडते हैं और उसी से बुझाने का प्रयास करते हैं।
सामग्री की अल्पता हमें प्यासा बना देती है पर सामग्री की अधिकता हमारी प्यास बुझा नहीं पाती।
बाहर से मैं खिला खिला दिखता हूँ। पर अन्तर में अपने आपको बुझा बुझा ही पाता हूँ।
हमारी प्यास कुछ अलग है। थोडी गहरी है। यह इधर उधर भागने से मिटने वाली नहीं है। सच तो यह है इधर उधर हाथ पाँव मारने से तो हम अपनी प्यास से और ज्यादा दूर ही जायेंगे।
यह प्यास बाहर भागने से नहीं, अपितु अन्तर में ठहरने से बुझने वाली है।
यह प्यास तो बाहर देखने में नहीं, अपितु अन्तर में डूब जाने से बुझने वाली हैै।  प्यास का प्यास के रूप में अनुभव होते ही प्यास बुझ जाती है।
और गहराई से सोचेंगे तो पायेंगे कि मैं प्यासा हूँ ही नहीं।
बल्कि यों कहें कि मैं तो तृप्त हूँ! पूर्ण तृप्त हूँ!