नवप्रभात
चिंतक - पूज्य उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर जी म.सा.
हमारा मन बडा ही टेढा है। वह सदा अपने आपको ही सर्वश्रेष्ठ समझता है... समझाने का प्रयास करता है। वह सदा सदा दूसरों को अपने से न्यून तोलता है। बराबरी में उसे रस नहीं है। उसे सदा अधिक ऊँचाई में ही रस है। वह केवल और केवल श्रेय लेना जानता है।
यह उसका अहं है। उसकी हर क्रिया अपने अहं से जुडी होती है। वह हारता है, तब भी अपने अहं को पोषण देने के तर्क खोज लेता है। जीत में तो वह सातवें आसमान की यात्रा करना शुरू कर देता है।
अहंकारी व्यक्ति हारने पर भी उसे जीत की भाषा में व्यक्त करता है।
निरहंकारी व्यक्ति जीतने पर भी उसका श्रेय दूसरों को देने में आनन्द का अनुभव करता है।
क्या किसी ऐसे वृक्ष को देखा, जो फल देने के बाद अपने अहंकार का ढिंढोरा जगत में पीटता हो! वृक्ष की शाखाओं प्रशाखाओं पर फलों का आना, उसकी जीवन यात्रा की विजय है। उसने वह काम कर लिया, जिसके लिये वह है! उसे मंजिल मिल गई!
पर वह कभी यह विज्ञापन नहीं करता कि यह मैंने किया! वह समूचे अस्तित्व के सहयोग को स्वीकार करता है। बल्कि अस्तित्व को ही श्रेय देता है।
किसी पेड को पूछो तो वह जवाब देगा- मैंने बीज के रूप में अपनी यात्रा का प्रारंभ किया था। माटी ने अपनी गोद में मुझे सम्हाला। पानी ने मुझे गति दी। हवाओं ने मुझमें दृढ़ता भरी। सूर्य की रोशनी ने मुझे सहारा दिया। माली ने मुझे सुरक्षा दी और मैंने फल दे दिया।
फल भले मैंने दिया पर परिणति तक पहुँचाने में इन सबका पूरा पूरा योगदान है।
क्या हमारा पुरूषार्थ ऐसा ही नहीं है! यह रहस्य समझ में आते ही अहंकार कपूर की तरह उड जाता है। जीवन सरल.. निष्कपट... सहज.. बन जाता है।
जब मन एक नए पुष्प की भाँती खिला हो, तो रात के अँधेरे में भी नवप्रभात का आगमन होता है। जब मैं एकांत का अनुभव करता हूँ तो भावों के प्रवाह की शब्दों से प्रस्तुति हो जाती हैं... --उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म. सा.